: भादरवो : आत्मधर्म : ७ :
देहमां (एटले रागादिमां पण) एकत्वबुद्धिवाळो जीव, अतीन्द्रिय ज्ञानमय एवा सर्वत्र
परमात्मानी–अरिहंतदेवनी परमार्थस्तुति–श्रद्धा–भक्ति करी शकतो नथी, अरिहंतना
परमार्थस्वरूपने ते ओळखतो नथी. अहा, स्वभावसन्मुख थयो त्यारे ज अरिहंतदेव
वगेरेनी साची ओळखाण थई.
अरे जीव! आ देहमां लोही, मांस ने हाडका सिवाय बीजुं शुं छे? आवा
अपवित्र वस्तुना पिंडने तुं तारो मानीने तेमां मूर्छाई रह्यो छे, ने शुद्ध–बुद्ध एवा तारा
पवित्र चैतन्यस्वरूपने तुं भूली रह्यो छे. अरे, रागनी मलिनता पण तारा स्वरूपमां
नथी त्यां आ मलिनतानो पिंड देह तारामां क््यांथी आव्यो? देहथी अत्यंत जुदो तुं
ज्ञायकमूर्ति छो, एम जाणीने शीघ्र देहनी मूर्छा छोड, ने आत्मानी भावना निरंतर कर,
तने तारा अंतरमां ज देखाशे.
अंर्तमुख अवलोकतां...
ज्यारे युद्धमांथी वैराग्य पामीने बाहुबलीए दीक्षा
लीधी, अने तेमनी हजारो राणीओ पण दीक्षा माटे
भगवानना समवसरणमां चाली गई...ने भरतचक्रवर्तीना
महेलमां दुःखथी हा......हाकार छवाई गयो, त्यारे ते
दुःखनी शांति माटे भरतराजे शुं कर्युं?–ते वखते भरतराज
पोताना मनमां एम विचारवा लाग्या के–
संसारमां कोईपण दुःख केम न आवे,–परंतु
परमात्मानी भावना ए बधा दुःखने दूर करी नाखे छे,
तेथी आत्मभावना करवी योग्य छे.–आम विचारी आंख
मींचीने तेओ आत्मनिरीक्षण करवा लाग्या. अने तेना
चित्तमां व्यापेलुं दुःख कोण जाणे क््यां चाल्युं गयुं!
खरेखर, निज–परमात्मानुं दर्शन सर्व दुःखदमननो
अमोघ उपाय छे.
उपजे मोह–विकल्पथी समस्त आ संसार,
अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.
(‘रत्नसंग्रह’ मांथी)