Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : भादरवो :

हे जीव! अज्ञानथी क्रोधादि कषायवश तुं जन्म–मरणनां दुःख अनादिथी
भोगवी रह्यो छे....हवे जो तुं भवभ्रमणनां दुःखथी भयभीत हो तो
चैतन्यनी भावना कर. शुद्धआत्मतत्त्वनी भावना ते ज कषायोने रोकवानो
उपाय छे. हे जीव! प्रतिकूळतामां आत्माने याद करजे–तारा सर्वसमाधान थई
जशे; आनंदसमुद्र आत्मा छे तेमां ज्यां उपयोग जोडयो त्यां दुःख केवुं?
साधकने जगतमां कांई प्रतिकूळ छे ज नहि. हे जीव! कोईए तारा दोष ग्रहण
कर्या तो तेमां तने शुं नुकशान थयुं? तुं शांतचित्त रहीने तारी
आत्मआराधनामां तत्पर रहे.
(परमात्मप्रकाश–प्रवचन)
हे जीव! ताराथी विरुद्धजातिरूप एवुं आ शरीर ते तारुं मित्र नथी; जो तेनी
भाईबंधी करवा जईश तो तुं दुःखी थईश. आ रीते देहना आश्रये दुःख थाय छे माटे
तेने उपचारथी शत्रु कह्यो; ने आवा दुःखदायी देहनो जेना वडे अभाव थाय एवा
रत्नत्रयधर्मने तुं तारो मित्र जाण. अरे, आ देह जड, एनी मित्रता शी? एना संबंध
शो? मुनिवरो तो देहलक्ष छोडीने चैतन्यनी साधनामां एवा लीन थाय छे के हरणीयां
आवीने शरीरने झाडनुं थड समजीने तेनी साथे शरीर घसे छे......पण मुनि ध्यानमां
अडोल रहे छे. अथवा, मुनि वनजंगलमां एकाकीपणे ध्यानमां बिराजता होय ने सिंह
आवीने शरीरने खाई जतो होय तोपण मुनि सिंहने शत्रु मानता नथी. जे देह मुनिने
जोईतो नथी ते देहने सिंह लई जाय छे, तो ए तो मित्र थयो! अरे जीव! आवी देहथी
भिन्नतानी ने वीतरागतानी भावना तो भाव! परमात्मतत्त्वनी भावना ज परम
आनंदनुं कारण छे; देहनी भावना तो दुःख छे.
शल्य जेवा वचन कोई कहे तो तेनी सामे जोईने अटकीश नहि, तारा
परमात्मतत्त्वमां जाजे; तारा परमात्मतत्त्वमां वचननो प्रवेश नथी, एवा
परमात्मतत्त्वनी भावनामां तने परम आनन्द थशे, ने कषायो उपशमी जशे.
सामो जीव पण कांई वचननो आधार नथी, ने तारो आत्मा पण वचननो
आधार नथी. परमब्रह्म एवो पोतानो आत्मा ते अनंत ज्ञानादिगुणोनुं धाम छे. हे
जीव!