: १० : आत्मधर्म : भादरवो :
कांई तने गुण–अवगुण नथी. माटे वस्तुस्वरूप विचारीने तुं तारा समाधानभावमां
रहे. तारुं स्वरूप परम प्रशंसनीय छे–तेने ज तुं आदर. ने क्रोधादि भावो निंदनीय छे
तेने तुं छोड. आवी आत्मभावनामां तत्पर जीवने निंदादि प्रतिकूळताना प्रसंगे क्रोधादि
थता नथी. जेम घरमां कोई चोर आवे ने रत्न वगेरे न ल्ये पण कचरो लई जाय, तो
तेणे तो उलटुं घर साफ करी दीधुं. तेणे शुं बगाडयुं? तेम मारा अनंतगुण छे तो तो
कोईए ग्रह्या नहि रागद्वेषादि दोष ज ग्रहण कर्या, तो तेणे मारुं शुं बगाडयुं? मारा
गुणने तो कोई लई शकतो नथी. वळी मारामां जे क्रोधादि दोष विद्यमान छे ते जो मने
बीजो बतावे तो तेणे सत्य ज कह्युं, ते सत्यवादी उपर शुं द्वेष करवो? द्वेष तो पोताना
दोष उपर करीने तेने टाळवा जेवा छे. अने जो मारामां अविद्यमान दोष ते कहे तो तेना
मिथ्या कहेवाथी तो कांई मारामां ते दोष आवी जवाना नथी. तेनुं ज्ञान मिथ्या थयुं.
कोईना वृथा कहेवाथी तो कांई दोष लागी जता नथी. पापी जीव निर्दोष सन्तो उपर
पण केटला अत्याचार करे छे–पण तेथी कांई सन्तोना गुणनो ते नाश करी शकतो नथी.
कोई पाछळथी दोष कहे, सन्मुख कहे, अपमान करे के शरीरने बाधा पहोंचाडे, पण
मारा ज्ञानादि गुणोने बाधा पहोचाडवां कोई समर्थ नथी. माटे हुं कोना उपर क्रोध करुं?
हुं जो क्रोध करुं तो ते क्रोधवडे मारा गुण हणाय छे; पण हुं मारा क्षमाभावमां रहुं ने
मारा स्वरूपथी हुं न डगुं तो बीजो कोई मने नुकशान करवा समर्थ नथी. मारा जे
रत्नत्रयगुण खील्या छे ते मारा स्वभावना आश्रये खील्या छे, ते कांई परना आश्रये
खील्या नथी, के पर वडे तेनो नाश थाय! हुं मारा चैतन्यरूपने धारण करुं छुं त्यां
क्रोधादि वृत्ति रहेती नथी. जेम–रावण सीताने लई गयो छे, घणुं मनाववा छतां सीता
महासती तेनी सामे पण जोती नथी; त्यारे कोई रावणने कहे छे के तुं रामनुं रूप धारण
कर तो सीता तारा पर (तने राम समजीने) प्रसन्न थाय. पण रावण ज्यां रामनुं रूप
धारण करे छे त्यां तेनी वृत्ति पण राम जेवी निर्दोष थई जाय छे ने विकारी वृत्ति रहेती
नथी, सीताजी तेने बहेन जेवी देखाय छे. तेम अहीं विकारनो नाश करवा धर्मात्मा कहे
छे के हुं ज्यां मारा आतमरामनुं रूप धारण करुं छुं त्यां विकारी वृत्ति रहेती नथी. आ
रीते शुद्धआत्मस्वरूप जाणीने तेनी भावनामां तत्पर रहेवुं–स्वसन्मुख परिणमवुं–ते ज
क्रोधादि सर्व दोषना नाशनो उपाय छे.