: भादरवो : आत्मधर्म : १प :
एक साधर्मी प्रत्ये संकट वखते जे उदार भावनाथी वात्सल्य बताव्युं ते आ जमानामां
अत्यंत अनुकरणीय छे. आजना जैनसमाजने आवा वात्सल्यवंत भाईओनी घणी
जरूर छे. बनारसीदासजीने वेपारमां बे वर्षे २०० रूा. नी कमाणी थई, ने एटलुं ज
खर्च थयुं. वेपारना अनेक प्रयत्न कर्या पण सफळता न मळी; अलीगढनी यात्राए गया
त्यां प्रबल तृष्णावश प्रभु पासे लक्ष्मीनी प्रार्थना करी.
आ दरमियान तेमनी पत्नीने त्रीजो पुत्र थयो, पण मात्र पंदर दिवस जीवीने ते
मृत्यु पाम्यो ने तेनी माताने पण लई गयो. पोतानी साळी साथे फरी लग्न कर्या; सं.
१६७३ मां तेमना पितानो स्वर्गवास थयो. त्यारबाद तेओ आग्रा गया. आग्रामां
प्लेगनो भयंकर प्रकोप थयो. लोको भयभीत थईने जंगलमां रहेवा गया. सं. १६७७
थी ७९ मां माता, भार्या तथा पुत्र–त्रणेनो स्वर्गवास थई गयो. सं. १६८० मां (३७
मा वर्षे) त्रीजी वार लग्न कर्या.
आग्रामां अर्थमल्लजी नामना अध्यात्मरसिक सज्जन हता, तेओ
बनारसीदासजीनी काव्यशक्ति देखीने आनंदित थता, पण तेमां अध्यात्मिकरसनो
अभाव देखीने दुःख पण थतुं. तेमणे एकवार अवसर पामीने पं. राजमल्लजी रचित
समयसार–कलशटीका आपीने तेनी स्वाध्याय करवा कह्युं; परंतु गुरुगम वगर तेमने
अध्यात्ममार्गनी सूझ न पडी. तेमने अने तेमना मित्रोने आत्मस्वाद तो आव्यो नहि
ने क्रियाओनो रस मटी गयो; एकवार तो नग्न थईने कोटडीमां फरवा लाग्या ने कहे के
अमे मुनि थया. एवामां पं. रूपचंदजी आग्रामां आव्या ने एकान्तग्रसित
बनारसीदासजीने गोम्मटसारना अभ्यास द्वारा गुणस्थान– अनुसार ज्ञान–क्रियाओनुं
विधान समजाव्युं; ते समजतां तेमनी आंखो खूली गई.–
तब बनारसी औरहि भयो,
स्वाद्वाद परणति परिणयो,
सुनि सुनि रूपचंद के वैन,
बनारसी भयो द्रिढ जैन.
हिरदेमें कछुं कालिमा,
हु ती सरदहन बीच,
सोउ मिटि, समता भई,
रही न ऊंच न नीच.