Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : भादरवो :
वि....वि....ध
व....च....ना....मृ....त
(आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक : १२)
(१७१) बलिहारी संतोनी
ज्ञानी संसारमां गृहस्थपणामां रह्या होय, राग–द्वेष–क्रोधादि कलेशपरिणाम
अमुक थतां होय, पण एने एनी लाळ लंबाती नथी, केमके ए ज वखते भिन्नतानुं
भान भेगुं छे. संसारना गमे तेवा कलेशप्रसंगो के प्रतिकूळ प्रसंगो आवे, पण ज्यां
चैतन्यना ध्याननी स्फूरणा जागी त्यां ते बधाय कलेशो क््यांय भागी जाय छे; गमे तेवा
प्रसंगमांय एना श्रध्धा–ज्ञान घेराई जता नथी. ज्यां चिदानंद–हंसलानुं स्मरण कर्युं त्यां
ज दुनियाना बधा कलेशो अलोप थई जाय छे; तो ए चैतन्यना अनुभवमां तो कलेश
केवो? एमां तो एकलो आनंद छे,...एकली आनंदनी ज धारा वहे छे. वाह! बलिहारी
छे आवा सन्तोनी.
(१७२) सुखनी श्रद्धा
जेम सिद्धभगवंतो कोईपण बाह्यविषयो वगर ज पोताना आत्माथी ज सुखी
छे. तेम मारुं सुख पण मारा आत्मामां ज छे; सुख ते आत्मानो स्वभाव ज छे. ते
क््यांय बहारथी नथी आवतुं–एवो जेणे निश्चय कर्यो तेने पांच ईन्द्रियना कोई पण
विषयमां सुखनी कल्पना छूटी जाय छे. मारुं सुख मारा स्वभावमां ज छे–एम ज्यां
सुधी श्रद्धा न थाय ने पोताना आत्मसुखनो पोताने अनुभव न थाय त्यांसुधी कोईने
कोई प्रकारे परमां सुखनी कल्पना, मोह, अने बाह्य विषयोनी आकुळता मटे नहि.
(१७३) जडीबुट्टी
चैतन्यस्वरूपनुं चिंतन करवुं ते संसारना सर्व दुःखोनो थाक उतारवानी जडीबुट्टी
छे. माटे कहे छे के अरे जीवो! आ चैतन्य–स्वरूपना चिन्तनमां कलेश तो जरा पण नथी
ने तेनुं फळ महान छे, महान सुखनी तेना चिन्तनमां प्राप्ति थाय छे, तो एने केम
ध्यानमां चिन्तवता नथी! ने बहारमां ज उपयोगने केम भमावो छो? आ चैतन्यना
चिन्तनरूप जडीबुट्टी तमारी पासे ज छे, एने सूंघतां ज संसारना सर्वकलेशनो थाक
क्षणभरमां ऊतरी जशे.
(१७४) स्वरूपसाधनमां एकनुं ज अवलंबन
निजस्वरूपनी साधना पोताना स्वभावना ज अवलंबने थाय छे, तेमां बीजा
कोईनुं पण अवलंबन काम आवतुं नथी. माटे हे