Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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रत्नत्रयनी आराधनानुं पर्व
पर्युषणपर्व एटले रत्नत्रयनी आराधनानुं पर्व. अहा,
रत्नत्रयनी आराधना... जेनुं नाम सांभळतां पण दरेक जैननुं हृदय
भक्तिथी उल्लसित थई जाय छे. उत्तमक्षमादि दशधर्मोनी उपासना
पण रत्नत्रयनी आराधनामां समाई जाय छे. आवा रत्नत्रयनी
पूर्ण आराधना ए आपणुं उत्तम ध्येय छे. ए ध्येयने जेओ साधी
रह्या छे एवा रत्नत्रयधारी महात्माओना महिमानी तो शी वात!
ए रत्नत्रयधर्मनुं खरुं स्वरूप ओळखीने, अने ए रत्नत्रयधारी
संतोने ओळखीने, तेनी भावनापूर्वक तेमना प्रत्ये परम भक्ति–
बहुमान–पूजनादिरूपे प्रवर्ततुं ते पण रत्नत्रयथी उपासनानो एक
प्रकार छे, तेमां रत्नत्रयधर्मने आराधवानी पोतानी भावना
पोसाय छे. रत्नत्रयनी जयमाला द्वारा पण ए ज भावना
भाववामां आवे छे.
चहुंगति–फणिविषहरन–मणि दुःखपावक जलधार,
शिवसुखसुधा–सरोवरी सम्यक्त्रयी निहार.
(चारगतिरूप जे फणिधर तेना विषने हरनार मणिसमान, दुःखरूप–
अग्निने बुझाववामां जळधारासमान अने मोक्षसुखरूपी अमृतनुं सरोवर एवा
आ सम्यक्रत्नत्रयने ओळखीने हे जीव! एनी तुं आराधना कर.)
जापे ध्यान सुथिर बन आवे ताके करम बंध कट जावे;
तासों शिवतिय प्रीति बढावे जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावे.
ताको चहुंगतिके दुःख नांही, सो न परे भवसागरमांही;
जन्म–जरा–मृतु दोष मिटावे, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावे.
सोई दसलक्षणको साधे, सो सोलहकारण आराधे;
सो परमातम पद उपजावे, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावे.
सोई शक्र–चक्रीपद लेई, तीनलोकके सुख विलसेई,
सो रागादिक भाव बहावे, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावे.
सोई लोकालोक निहारे, परमानंददशा विस्तारे;
आप तिरे औरन तिरवावैं; जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावे.