Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : आत्मधर्म : २७ :
स्वा नु भ व
ज्ञा न नुं व र्ण न
सम्यग्द्रष्टिनी निर्विकल्प स्वानुभूतिनुं वर्णन, तेने
आत्मप्रतीतिनुं सळंगपणुं, तेना स्वरूपचिन्तनना प्रकारो, ए
स्वरूपचिंतनमां ऊठता आनंदतरंगो वगेरेनुं वर्णन ‘आत्मधर्म’ना
छेल्ला बे अंकोमां आपणे वांच्युं; तेमज ते धर्मात्माने अनुसरनारा
मुमुक्षुने पण स्वानुभव तरफ ढळती विचारधारा केवी होय, तेनो
प्रयत्न केवो होय ते पण जोयुं. हवे अहीं साक्षात् स्वानुभव
वखतना ज्ञाननुं वर्णन छे. स्वानुभवमां मति–श्रुतज्ञान शुं कार्य करे
छे ने तेनी केटली ताकात छे ते आ प्रवचनमां गुरुदेवे समजाव्युं छे.
जिनागममां जेवुं आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे तेवुं जाणीने, पोताना परिणामने
तेमां मग्न करीने धर्मीजीव मतिश्रुतज्ञान वडे स्वानुभव करे छे. सामान्यपणे मति–
श्रुतज्ञानने परोक्ष वर्णव्या छे, छतां स्वानुभवना काळमां तेमां अंशे अतीन्द्रियपणुं थयुं
छे ते अपेक्षाए प्रत्यक्षपणुं पण छे.
प्रत्यक्ष–परोक्षनी सामान्य व्याख्यामां, आत्माने जाणे ते प्रत्यक्ष ने परने जाणे ते
परोक्ष आवी व्याख्या नथी, केमके मति–श्रुतज्ञान आत्माने जाणे छे छतां तेने परोक्ष
गण्या छे, ने अवधि–मनःपर्ययज्ञान परने जाणे छे छतां तेने प्रत्यक्ष कह्या छे. जे ज्ञान
स्पष्ट होय अने सीधुं आत्माथी थाय ते ज्ञानने प्रत्यक्ष कहे छे; अने जे अस्पष्ट होय,
जेमां ईन्द्रियादि परनुं कंईक अवलंबन होय तेने परोक्ष कहे छे. हवे मति–श्रुतज्ञान
स्वसन्मुख थईने ज्यारे स्वानुभवमां वर्ते छे त्यारे तेमांथी ईन्द्रिय–मननुं जेटलुं
अवलंबन छूटयुं छे तेटलुं तो प्रत्यक्षपणुं छे, तेमां जे स्वानुभव थयो ते एकला
आत्माथी ज थयो छे, बीजा कोईनुं तेमां अवलंबन नथी, अने ते स्वानुभव स्पष्ट छे,
माटे ते प्रत्यक्ष छे. आ प्रत्यक्षपणुं अध्यात्मद्रष्टिवाळाने समजाय तेवुं छे. अहा, मति–
श्रुतज्ञान ईन्द्रिय अने मन वगर जाणे! .... भाई, जाणवानो स्वभाव तो आत्मानो छे
ने! आत्मा पोते पोताने मन अने ईन्द्रिय वगर ज जाणे छे. प्रवचनसारनी १७२ मी
गाथामां ‘अलिंगग्रहण’ ना २० अर्थो करतां