Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : भादरवो :
जे मति श्रुतज्ञान हता ते ज मतिश्रुतज्ञान विकल्प छूटीने स्वानुभवमां आव्या, एटले
स्वानुभवमां मति–श्रुतज्ञान छे एम अहीं बताववुं छे. मति–श्रुतज्ञाने आत्मानुं जे
स्वरूप जाण्युं तेमां ज ते मग्न थाय छे; तेमां जाणपणानी अपेक्षाए फेर नथी पण
परिणामनी मग्नतानी अपेक्षाए फेर छे.
मति–श्रुतज्ञान ज्यारे अंतरमां उपयोग मुकीने स्वानुभव करे छे त्यारे ते
निर्विकल्प दशामां कोई अपूर्व आनंद अनुभवाय छे. जाणपणा अपेक्षाए भले त्यां
विशेषता न होय पण आनंदनो अनुभव वगेरे अपेक्षाए तेमां विशेषता छे. ते संबंधी
स्पष्टीकरण आ ज अंकना हवे पछीना लेखमां वांचशोजी.
धर्मात्मानो संग
धर्मना जिज्ञासु आत्मार्थी जीवने, दुःखप्रसंगोथी
भरपूर आ जगतमां धर्मात्मानो योग महा शरणरूप
छे; अने धर्मात्मानो योग मळ्‌या पछी धर्मात्मानी
शीळी छायामां निरंतर वसवानो सुयोग बनवो ते
तो मुमुक्षुने माटे महा भाग्यनी वात छे. जेम
माबापनी हाजरीमात्र पण बाळकने प्रसन्नकारी ने
हितकारी छे तेम धर्मात्मानो योग मुमुक्षु जीवने
प्रसन्नकारी ते हितकारी छे.
आत्मार्थी जीव सदाय पोतानी नजरसमक्ष
धर्मात्माने देखीदेखीने पोताना आत्मार्थनुं पोषण करे
छे....ने पोतानुं आखुंय जीवन धर्मात्माना
जीवनअनुसार करवा भावना भावे छे....एटले
धर्मात्माना आराधकजीवनने ध्येयरूपे राखीने ज ते
पोतानुं जीवन जीवे छे. अने ज्यारे धर्मात्मानी
मी....ठी.....नजर के मधुरी वाणी तेना उपर वर्षे छे
त्यारे तेनो आत्मा एवो आह्लादित थाय छे के जाणे
सन्तोना अतीन्द्रिय आनन्दनी ज प्रसादी मळी होय!
अहा, आवा धर्मात्माओ जगतमां सदा जयवंत
वर्तो...के जेमना संगथी सम्यक्त्वादि गुणोनी प्राप्ति
तथा वृद्धि थाय छे.