Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : आत्मधर्म : ३१ :
निर्विकल्प–अनुभव
वखतनो विशिष्ट आनंद
धर्मात्माने स्वानुभवमां जे आनंद छे,
अज्ञानीने तेनी कल्पना आवी शकती नथी. विश्वथी
विमुख थईने एक निजात्मामां ज परिणाम ज्यारे
एकाग्र थाय छे त्यारे बीजा जाणपणा अपेक्षाए
विशेषता भले न होय पण स्वरूपमां तन्मय
उपयोगथी कोई अचिंत्य वचनातीत आनंद वेदाय
छे; आत्माना स्वानुभवना आनंदनी आ वात
मुमुक्षुए बराबर समजवा जेवी छे.
(पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)
प्रश्न:– जो सविकल्प–निर्विकल्पदशामां जाणवानी विशेषता नथी तो अधिक
आनंद कई रीते थाय छे?
समाधान:– सविकल्पदशा वखते ज्ञान अनेक ज्ञेयने जाणवारूप प्रवर्ततुं हतुं, ते
निर्विकल्पदशामां केवळ आत्माने ज जाणवामां प्रवर्ते छे,–एक तो ए विशेषता छे; बीजी
विशेषता ए छे के जे परिणाम विविध विकल्पमां परिणमता हता ते केवळ स्वरूपमां ज
तादात्म्यरूप थई प्रवर्त्या.–आ बीजी विशेषता थई. आवी विशेषता थतां कोई
वचनातीत एवो अपूर्व आनंद थाय छे के जेना अंशनी पण जात विषयोना सेवनमां
नथी; तेथी ते आनंदने अतीन्द्रिय कहीए छीए”
धर्मीजीव सविकल्पदशा वखते आत्मानुं जे स्वरूप जाणता हता ते ज
निर्विकल्पदशा वखते जाणे छे, निर्विकल्पदशामां कांई विशेष प्रकार जाण्या–एवी
विशेषता नथी, छतां सविकल्प करतां निर्विकल्पदशानो घणो महिमा करो छो तो तेनुं शुं
कारण? एमां एवी कई विशेषता छे के आटलो बधो स्वानुभवनो महिमा शास्त्रोए
गायो छे? ते अहीं