Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : भादरवो :
बताव्युं छे. भाई, स्वानुभव वखते ज्ञानउपयोग पोताना शुद्धआत्माने ज स्वज्ञेय
करीने तेमां थंभी गयो छे, पहेलां उपयोग बहारना अनेक ज्ञेयोमां ने विकल्पोमां
भमतो, ते मटीने उपयोग पोताना स्वरूपने एकने ज जाणवामां एकाग्र थयो.
एक तो आ विशेषता थई; अने बीजी विशेषता ए थई के, पहेलां सविकल्पदशा
वखते अनेक प्रकारना रागद्वेष–शुभाशुभ परिणाम थता, स्वानुभव वखते
शुद्धोपयोग थतां बुद्धिपूर्वकना समस्त रागादि परिणामो छूटी गया. केवळ
निजस्वरूपमां ज तन्मय परिणाम थया. आवी विशेषताने लीधे स्वानुभवकाळमां
सिद्धभगवान जेवो जे अतीन्द्रिय स्वाभाविक आनंद अनुभवाय छे ते वचनातीत
छे, जगतना कोई पदार्थमां ए सुखनो अंश पण नथी. ईन्द्रियजनित सुखो करतां
आ सुखनी जात ज जुदी छे; आ तो आत्माजनित सुख छे, आत्माना
स्वभावमांथी उत्पन्न थयेलुं छे. जोके, जेटली वीतरागता थई छे तेटलुं
आत्मिकसुख तो सविकल्पदशा वखतेय धर्मीने वर्ते छे, परंतु निर्विकल्पदशा वखते
उपयोग निजस्वरूपमां तन्मय थईने जे अतीन्द्रिय परम आनंद वेदे छे तेनी कोई
खास विशेषता छे. अहा, स्वानुभवनो आनंद शुं छे तेनी कल्पनाय अज्ञानीने
आवती नथी. जेणे अतीन्द्रिय चैतन्यने कदी जोयो नथी, जेणे ईन्द्रियविषयोमां ज
आनंद मान्यो छे तेने स्वानुभवना अतीन्द्रिय आनंदनी गंघ पण
क््यांथी होय? अरे, आवा स्वानुभवनी चर्चा पण जीवने दुर्लभ छे. जेणे ज्ञानने
बाह्य–ईन्द्रिय विषयोमां ज भमाव्युं छे, ज्ञानने अंदरमां वाळीने अतीन्द्रिय वस्तुने
कदी लक्षगत करी नथी तेने ए अतीन्द्रियवस्तुना अतीन्द्रियसुखनी कल्पना पण
क््यांथी आवे! ‘खाखरानी खीसकोली केरीनो स्वाद क््यांथी जाणे?’ तेम
ईन्द्रियज्ञानमां ज लुब्ध प्राणी अतीन्द्रियसुखना स्वादने क््यांथी जाणे? ज्ञानीए
चैतन्यना अतीन्द्रिय सुखने जाण्युंं छे, एनो अपूर्व स्वाद चाख्यो छे, ए सुख
एने निरंतर वर्ते छे; ते उपरांत अहीं तो निर्विकल्पदशामां तेने आनंदनी जे
विशेषता छे तेनी वात छे.
शंका:– अमे तो गृहस्थ; गृहस्थने आवी स्वानुभवनी वात केम समजाय?
समाधान: भाई, स्वानुभवनी आ चिठ्ठि लखनार पोते पण गृहस्थ ज
हता; अने जेमना उपर आ चिठ्ठी लखेली छे तेओ पण गृहस्थो ज हता; एटले
गृहस्थोने समजाय एवी आ वात छे. आत्मानुं सत्यज्ञान तो गृहस्थने पण थई
शके छे. मुनिदशा जेवी स्वरूपस्थिरता गृहस्थने न होय परंतु आत्मानुं ज्ञान
मुनिदशा जेवुं ज गृहस्थदशामांय थई शके छे. तेमां कांई फेर पडतो नथी. अने
आवुं आत्मज्ञान करे ते ज गृहस्थने धन्य कह्यो छे; श्रीकुंदकुंदस्वामी तो कहे छे के
हे श्रावक! तुं निर्मळ सम्य–