गुणस्थाने कोई जीवने मरण नथी एटले रस्तामां ते गुणस्थान होय नहि.
विग्रहगतिमां अज्ञानीने कुमति–कुश्रुत ए बे अने ज्ञानीने सम्यक्मति–श्रुत–अवधि ए
त्रण ज्ञान संभवे छे;–पण ते लब्धरूप होय, उपयोगरूप न होय.
पर्यायधर्म क्षणिक होवाथी टळी शके छे. द्रव्यधर्मने एटले के द्रव्यस्वभावने जोतां
आत्मामां विकारनुं कर्तृत्व नथी. ते स्वभाव तरफ वळेली पर्यायमांथी पण विकारनुं
कर्तृत्व छूटी गयुं छे.
तो कांई सामान्य जीवोने देखातुं नथी, तो तेना लक्षे विकार थयानुं केम कह्युं?
‘कर्मना लक्षे’ एटले ‘कर्मना निमित्ते’ एम अर्थ समजवो. स्वसन्मुख उपयोगथी विकार
न थाय, विकार बहारना ज आश्रये थाय; माटे विकार कर्मना लक्षे कह्यो; केमके बीजी
बाह्यवस्तु तो विकार वखते निमित्त हो के न हो, पण कर्म तो सदाय नियमथी
निमित्तरूप होय ज छे. भले अज्ञानीने कर्म ख्यालमां न आवे पण विकारमां तेने
निमित्तपणे ते होय ज छे. ते एम प्रसिद्ध करे छे के विकार स्वभावरूप भाव नथी पण
विभावरूप छे. कषाय ते जीवनो स्वभाव नथी–ए बाबत षट्खंडागम पुस्तक पांच पृ.
२२३मां सरस युक्तिथी समजावी छे.
तेनुं अस्तित्व न रहे; एनुं नाम व्यय छे. द्रव्य त्रिकाळ छे, पर्याय एक समयपूरती छे,
एटले द्रव्यथी जोतां वस्तु नित्य देखाय छे ने पर्यायथी जोतां वस्तु अनित्य देखाय छे;
आम वस्तु अनेकान्तस्वरूप छे.