पोताथी परिपूर्ण जाणीने ते तरफ वळ्यो त्यां जगतना समस्त अन्य पदार्थो प्रत्ये साची
उदासीनता थई.
स्वसंवेदनज्ञानेन स्वसंवेद्यो गम्यो प्राप्योऽहं।
वीतराग सहज आनंदरूप सुखअनुभूतिमात्र लक्षणथी एटले के स्वसंवेदनज्ञानथी
स्वसंवेद्य गम्य ने प्राप्त थाउं एवो हुं छुं, जुओ, स्वरूप केवुं छे ने तेनी प्राप्ति केम थाय–
अनुभव केम थाय, ए बंने वात भेगी बतावे छे. निश्चय रत्नत्रयवडे मारी प्राप्ति थाय
छे, रागरूप के विकल्परूप व्यवहार रत्नत्रयवडे मारी प्राप्ति थती नथी. स्वसंवेदनज्ञानथी
ज अनुभवमां आवुं एवो हुं छुं; स्वसंवेदनज्ञान राग वगरनुं वीतराग सहज आनंदना
अनुभवरूप छे. आवा अनुभव वगर बीजा उपायथी शुद्धात्मानी प्राप्ति के सम्यक्त्वादि
थाय नहि.
अनुभूति वगर तो जिनबिंबदर्शन वगेरे सम्यक्त्वना बाह्यकारण पण थतां नथी.
आत्मानुं ज्ञान अने आत्मानी अनुभूति परम आनंदरूप छे, ते रागरूप नथी के
रागवडे थती नथी; स्वसंवेदनरूप स्वानुभूतिथी ज आत्मस्वभाव अनुभवमां आवे छे.
आ सिवाय बीजा कोईनी तेमां अपेक्षा नथी.
स्वानुभूतिथी ज आत्मा जणाय छे–वेदाय छे ने पमाय छे, बीजा उपायथी आत्मा
जणातो नथी, वेदातो नथी के पमातो नथी. अनुभूतिरूप मारी निर्मळ पर्यायवडे ज हुं
मने वेदाउं छुं, मारी पर्यायवडे ज हुं मने जणाउं छुं; आत्मा तरफ ढळेली निर्मळपर्यायमां
ज आत्मानी प्राप्ति थाय छे. पर तरफ ढळती पर्यायमां आत्मानी प्राप्ति के अनुभूति
थती नथी. आवुं निज स्वरूप विचारीने वारंवार तेनी भावना करवी.
आम स्वभावथी परिपूर्णतारूप अस्ति बतावीने हवे परभावथी शून्यतारूप नास्ति
बतावे छे.