Atmadharma magazine - Ank 264
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : आत्मधर्म : १७ :
रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभ–पंचेन्द्रियविषयव्यापार–मनोवचनकायव्यापार
–भावकर्म–द्रव्यकर्म–नोकर्म–ख्यातिपूजालाभ–द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान–
मायामिथ्यात्वशल्यत्रय–आदि सर्वविभाव परिणामरहित शून्योऽहं
” एटले के हुं
रागद्वेषमोह–क्रोधमानमायालोभथी रहित, पांच ईन्द्रियना विषयव्यापारथी रहित,
मनवचनकायाना व्यापारथी रहित, भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्मथी रहित, ख्याति–
पूजालाभनी के द्रष्टश्रुतअनुभूत भोगनी आकांक्षारूप निदानशल्य–मायाशल्य तथा
मिथ्यात्वशल्य– ए त्रणे शल्यथी रहित–ईत्यादि बधा विभावपरिणामरहित होवाथी
शून्य छुं.
मारुं स्वरूप समस्त विभावपरिणामोथी रहित छे; हुं स्वभावथी भरेलो ने
विभावोथी शून्य एटले के खाली छुं. राग–द्वेष–क्रोध–मान–माया–लोभादि समस्त
परभावोथी रहित, मारा सहज स्वभावथी ज हुं भरेलो छुं. आवा स्वभावनी भावना
सिवाय बीजा कोईनी भावना मने नथी, एटले हुं समस्त विषयोनी अभिलाषाथी
रहित छुं. स्वानुभूतिगम्य मारा शुद्धस्वरूपमां परभाव छे ज नहि. मारुं अने जगतना
बधा जीवोनुं आवुं ज शुद्धस्वरूप छे. आवी भावना निरंतर करवी.
अहीं भावना एटले मात्र विचार के विकल्पनी वात नथी पण ज्ञानने वारंवार
स्वभाव तरफ वाळवुं तेनुं नाम भावना छे. ‘हुं आवो छुं ने आवो नथी’ एम मात्र
विकल्पनी वात नथी पण अंतरमां स्वभाव तरफनी तेवी रुचि ने परिणति थाय ते
साची भावना छे. भावना अनुसार भवन एटले शुद्ध स्वभावनी रुचिनुं वारंवार
घोलन करतां तेवुं शुद्ध परिणमन थाय छे, ने परमात्मदशा खीले छे, ते भावनानुं फळ
छे. अहा! आवी परमात्म–भावना ए ज परम सुखदातार छे, ते आनंदरूप छे, तेमां
परम समाधि ने शांति छे, तेमां आकुळता नथी, कलेश नथी. आवी आनंददायी
परमात्मभावना कोण न भावे!
सम्यग्दर्शन पण आवी आत्मभावनाथी ज थाय छे.
सम्यग्ज्ञान पण आवी आत्मभावनाथी ज थाय छे.
सम्यक्चारित्र पण आवी आत्मभावनाथी ज थाय छे.
वीतरागता पण आवी आत्मभावनाथी ज थाय छे.
केवळज्ञान पण आवी आत्मभावनाथी ज थाय छे.
मोक्षदशा पण आवी आत्मभावनाथी ज थाय छे.
आवी शुद्ध आत्मभावना ते धर्म छे.
आवी शुद्ध आत्मभावनामां परम आनंद छे.