: १८ : आत्मधर्म : आसो :
आवा शुद्धस्वभावनी भावना सिवाय बीजी कोई (रागनी के संयोगनी)
भावनाथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र–वीतरागता–केवळज्ञान के मोक्ष थतो नथी, धर्म
थतो नथी, आनंद थतो नथी. माटे मुमुक्षुए आ भावना निरंतर करवायोग्य छे.
सर्वज्ञदेवना शासननो सार, दिव्यध्वनिनुं तात्पर्य अने बार अंगना रहस्यनो नीचोड
‘जगत्त्रये वालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयनयेन
तथा सर्वेऽपि जीवाः इति निरंतर भावना कर्तव्येति।’–त्रण लोकमां अने त्रणे काळे हुं
आवो (स्वभावथी भरेलो ने सर्व विभावथी खाली) छुं तथा बधा जीवो पण एवा
जुओ, आ भावना! त्रणे काळे ने त्रणे लोकमां आवी भावना करवा जेवी छे.
गमे ते क्षेत्रमां के गमे ते काळमां मारो आत्मा आवो शुद्धस्वरूप ज छे–ए भावना
करवा जेवी छे. मनथी–वचनथी–कायाथी ए ज भावना करवा जेवी छे, ए ज भावना
प्रश्न:– पहेलां मनवचनकायाना व्यापारथी हुं जुदो छुं–एम कह्युं हतुं ने अहीं
उत्तर:– अहीं विकल्प ऊठे ने मनवचनकाया तरफ लक्ष जाय तो तेमां पण
शुद्धात्मानी भावनानी ज मुख्यता राखवी एम बताव्युं छे. मनमां विचार ऊठे तो ते
शुद्धात्मानी भावनाना ज पोषाक, वचन नीकळे तो ते पण शुद्धात्मानी भावनाना ज
प्रतिपादक, अने कायानी चेष्टा थाय तो ते पण शुद्धात्मानी भावनाने ज अनुरूप,–ए
रीते मनवचनकायाथी पण शुद्ध आत्मानी ज भावना भाववी. आमां मनवचनकायानी
त्रणेकाळे आत्मस्वभाव आवो शुद्ध छे एम भावना करवी; भूतकाळे पण हुं
आवो शुद्ध ज हतो,–पण त्यारे हुं मारा आ स्वभावने भूल्यो हतो. हवे भान थतां
खबर पडी के पहेलां अज्ञानदशा वखतेय मारो स्वभाव आवो शुद्ध हतो. आम
प्रश्न:– वर्तमानमां तो पर्यायमां दोष छे, तो त्रणेकाळे शुद्धतानी भावना केम
उत्तर:– वर्तमान पर्यायमां अल्प दोष छे पण भाई! ए ज वखते पहाड जेवडो
निर्दोषस्वभाव विद्यमान छे तेने प्रधान कर ने तेनो महिमा लावीने तेनी भावना