Atmadharma magazine - Ank 264
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : आसो :
निजस्वरूपनी अनुभवनशील
अने परभावोनी मेटनशील
एवी ज्ञानज्योति
जे ज्ञानज्योति प्रगटतां आत्मामां
मोक्षमार्गनो अपूर्व प्रकाश खीले छे ने अनादिना
अज्ञानअंधारा नाश पामे छे. ते ज्ञानज्योति केवी
छे? निज स्वरूपनी जाणनशील अने परभावोनी
मेटनशील, एवी ते ज्ञानज्योतिनुं आ वर्णन छे.
भेदज्ञानना अभ्यास माटेना विचारो केवा होय ते
पण आमां बताव्युं छे.
(समयसार कलशटीका–प्रवचनो कळश ४६–४७)
आ कर्ताकर्म–अधिकार छे. आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे; ते स्वभावनुं खरूं कार्य
भाई, तुं तो ज्ञान छो. ज्ञानने पर साथे तो कर्ताकर्मपणुं नथी ने क्रोधादि
साथे पण ज्ञानने कर्ताकर्मपणुं नथी. क्रोध अने ज्ञानने भिन्न करती ज्ञानज्योति
प्रगट थाय छे, ते ज्ञानज्योति परभाव साथेना कर्ताकर्म भावने दूर करे छे. ‘आ
क्रोधादि ते मारुं कर्म ने ज्ञानस्वरूप हुं तेनो कर्ता’–आवी ज्ञान अने क्रोध वच्चेनी
जे कर्ताकर्मनी बुद्धि छे ते अज्ञानथी ज छे. कर्ता अने कर्म एकमेक होय, जुदा न
होय; हवे ज्ञानने अने क्रोधने जेणे कर्ताकर्मपणुं मान्युं तेणे ज्ञानने अने क्रोधादि
परभावोने एकमेक मान्या, जुदा न जाण्या, तो ते परभावना कर्तृत्वथी क््यारे
छूटे? परभावनी पक्कड करे तेने परभाव टळे नहि ने स्वभावना निर्मळ भावो
प्रगटे नहि, एटले धर्म थाय नहि.