: आसो : आत्मधर्म : २३ :
आत्महितना अभिलाषीनुं प्रथम कर्तव्य
तत्त्वनिर्णयरूप धर्म तो बाळ, वृद्ध रोगी, नीरोगी, धनवान, निर्धन सुक्षेत्री
तथा कुक्षेत्री आदि सर्व अवस्थामां प्राप्त थवायोग्य छे, तेथी जे पुरुष पोताना
हितनो वांछक छे तेणे सर्वथी पहेलां आ तत्त्वनिर्णयरूप कार्य ज करवुं योग्य छे.
[शार्दूलविक्रीडित]
न क्लेशो न धनव्ययो न गमनं देशान्तरे प्रार्थना
केषाचिन्न बलक्षयो न तु भयं पीडा न कस्माश्च न।
सावद्यं न न रोग जन्मपतनं नैवान्य सेवा नहि
चिद्रूपं स्मरणो फलं बहुतरं किन्नाद्रियन्ते बुधाः।।
[तत्त्वज्ञानतरंगिणी]
अर्थ:– चिद्रूप (ज्ञानस्वरूप) आत्मानुं स्मरण करवामां नथी कलेश थतो, नथी धन
खर्चवुं पडतुं, नथी देशांतर जवुं पडतुं, नथी कोई पासे प्रार्थना करवी पडती, नथी बळनो क्षय
थतो, नथी कोई तरफथी भय के पीडा थती; वळी ते सावद्य (पापनुं कार्य) नथी, रोग के
जन्ममरणमां पडवुं पडतुं नथी, कोईनी सेवा करवी पडती नथी; आवी कोई मुश्केली विना
ज्ञानस्वरूप आत्माना स्मरणनुं घणुं ज फळ छे, तो पछी डाह्या पुरुषो तेने केम आदरता नथी?
वळी जेओ तत्त्वनिर्णयनी सन्मुख नथी थया तेमने जागृत करवा ठपको आपे छे के:–
साहिणे गुरुजोगे जे ण सुणंतीह धम्मवयणाई।
ते धिट्ठ दुठ्ठचिता अह सुहडा भवभयविहुणा।।
अर्थ:– गुरुनो योग स्वाधीन होवा छतां जेओ धर्मवचनोने सांभळता नथी
तेओ धीठ अने दुष्ट चित्तवाळा छे अथवा तेओ भवभयरहित सुभट छे,–जे संसारथी
श्री तीर्थंकरादिक डर्या तेनाथी तेओ डरता नथी! आम कहीने तेना उपर कटाक्ष कर्यो छे.
जेओ शास्त्राभ्यासद्वारा तत्त्वनिर्णय तो नथी करता अने विषय–कषायना
कार्योमां ज मग्न छे तेओ तो अशुभोपयोगी मिथ्याद्रष्टि छे; तथा जेओ सम्यग्दर्शन
विना पूजा, दान, तप, शील संयमादि व्यवहारधर्ममां (शुभभावमां) मग्न छे तेओ
शुभोपयोगी मिथ्याद्रष्टि छे. माटे भाग्योदयथी जेओ मनुष्यपर्याय पाम्या छे तेमणे तो
सर्व धर्मनुं मूळ कारण सम्यग्दर्शन, अने तेनुं मूळ कारण तत्त्वनिर्णय, तथा तेनुं पण
मूळ कारण सत्समागम अने शास्त्राभ्यास, ते अवश्य करवायोग्य छे.
जे आवा अवसरने व्यर्थ गुमावे छे तेमना उपर बुद्धिमान करुणा करी कहे छे के:–
प्रज्ञैव दुर्लभा सुष्ठु दुर्लभा सान्यजन्मने।
तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ति ते शोच्याः खलु धीमताम्।।