: २८ : आत्मधर्म : आसो :
मळतुं पण अंदरना चैतन्यभंडार खोलीने अतीन्द्रियआनंदरूपी अमृतनां भोजनपान
करे छे. अरे, नरकमां ते आनंद होय? हा भाई, सम्यग्द्रष्टि जीवने त्यां पण आनंदनुं
वेदन छे;–पण ते आनंद कांई नरकमां नथी, आनंद तो आत्मामां छे. निजआत्मामांथी
धर्मी जीव आनंदने अनुभवे छे; ते आनंद जेम बहारना संयोगमांथी आव्यो नथी तेम
बहारना प्रतिकूळ संयोगथी अटकतो पण नथी. अंदरनुं पाताळ फोडीने जे आनंदनी
धारा उल्लसी ते धारा कोईथी अटके नहि. ते अत्यंत धीर–गंभीर छे.....तेनो प्रवाह तूटे
नहि, ते प्रवाहमां भरती थईने केवळज्ञान थवानुं छे.
(१८८) ते क््यांथी मोक्ष पामे?
परमात्मप्रकाशमां कहे छे के
दाणु ण दिण्णउ मुनिवरहँ
ण वि पुञ्जिउ जिण–णाहु।
पंच ण वंदिउ परमगुरु
किमु होसइ सिव–लाहु।। १६८।।
जेणे रत्नत्रयना आराधक मुनिवरोने भक्तिपूर्वक दान दीधुं नथी,
अनंतगुणधारी जिननाथने जेणे पूज्या नथी, ने पंच परमगुरुनी भक्तिपूर्वक वंदना
जेणे करी नथी–ते श्रावकने मोक्षलाभ क््यांथी थशे?
(१८९) निश्चिंत था
हे जीव! तुं परद्रव्यनी चिन्ताने छोडीने ज्यारे स्वद्रव्यना ध्यानमां तत्पर थईश
त्यारे ज भवभ्रमणथी छूटीश. परमात्मस्वभावथी परांग्मुख थईने परद्रव्यनी जेटली
चिंताजाळ छे ते संसारनुं कारण छे. होनहार तीर्थंकर पण ज्यांंसुधी पर द्रव्यनी
चिन्तामां आसक्त छे ने स्वद्रव्यमां लीन थता नथी त्यां सुधी तेमने पण शुद्धोपयोग,
केवळज्ञान के मोक्ष थतो नथी. चिन्तासक्त जीवने निर्विकल्पध्यान सिद्ध थतुं नथी.
समस्त परचिंता छोडीने उपयोगने जे स्वद्रव्यमां जोडे छे तेने ज निर्विकल्पध्यान,
शुद्धोपयोग, केवळज्ञान ने मोक्ष थाय छे. माटे हे जीव! निश्चिंत थईने तुं शुद्धात्माने
भाव. निश्चिंतपुरुषो ज आत्माने साधे छे.
(१९०) सम्यग्दर्शन जयवंत छे
जयति सुखनिधानं मौक्षवृक्षैकबीजं
सकलमलविमुक्तं दर्शन यद्विना स्यात्।
मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरितं चरित्रं
भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव।। ७७।।
धर्मोपदेशरूपी अमृत वर्षावतां श्री पद्मनंदीस्वामी कहे छे के ते सुखनिधान
सम्यग्दर्शन आ जगतमां जयवंत छे के जे मोक्षवृक्षनुं एक बीज छे, जे सकल मलथी
विमुक्त छे, जेना वगरनी मति ते कुमति छे, जेना वगरनुं चारित्र ते दुःचारित्र छे, अने
जेना वगर आ प्राप्त थयेलो मनुष्य जन्म पण नहि प्राप्त थवा समान छे.