: ३० : आत्मधर्म : आसो :
(प३) प्रश्न:– केवळज्ञानीना शरीरमां निगोदजीवो होय?
उत्तर:– ना, केवळज्ञानीने परम औदारिक शरीर छे, तेना आश्रये निगोदना जीवो
होतां नथी. आकाशमां ते क्षेत्रे होय,–केमके लोकमां सर्वत्र निगोद जीवो छे, परंतु ते
जीवो परम औदारिकशरीरने आश्रित नथी. केवळज्ञानीनुं परम औदारिक शरीर,
मुनिनुं आहारक शरीर, देवोनुं तथा नारकीनुं वैक्रियिक शरीर, तथा पृथ्वीकाय–
अप्काय–वायुकाय अने तेजोकाय ए स्थानोना आश्रये निगोदजीवो होतां नथी.
(प४) प्रश्न:– जातिस्मरणज्ञान क््यारे थाय?
उत्तर:– ए ज्ञान जेने पूर्व भवना ते प्रकारना संस्कार होय तेने थाय छे. पण
मुमुक्षुने मुख्यता आत्मज्ञाननी छे, जातिस्मरणनी मुख्यता नथी. मोक्षनुं कारण
आत्मज्ञान छे, जातिस्मरणज्ञान मोक्षनुं कारण नथी. धर्मसंबंधनुं जातिस्मरणज्ञान होय
तो ते वैराग्यनुं के सम्यक्त्वादिनुं निमित्त थाय छे; पण मुमुक्षुने भावना अने प्रयत्न
आत्मज्ञाननो होय, जातिस्मरणनो नहि.
जातिस्मरण तो भवने जाणे छे, कोई अज्ञानीने पण ते संभवे छे.
आत्मज्ञानथी आत्मानी स्वजातने जाणवी ते परमार्थ जातिस्मरण छे.
(पप) प्रश्न:– दर्शनमोहनी एक प्रकृतिनुं नाम ‘सम्यक्त्व–प्रकृति’ केम छे?
उत्तर:– केमके तेना उदयनी साथे सम्यक्त्व पण होय छे, एटले सम्यक्त्वनी
सहचारिणी होवाथी तेनुं नाम ‘सम्यक्त्वप्रकृति’ पड्युं. क्षायोपशमिक सम्यक्त्वनी साथे
तेनो उदय होय छे.
(प६) प्रश्न:– जीव अत्यारे जे पुण्य–पाप करे छे तेनुं फळ क््यारे मळे?
उत्तर:– करेलां पुण्य–पापनुं फळ कोई जीवने आ भवमां ज पण आवी जाय
छे, ने कोईने पछीना भवोमां आवे छे. कोईने पुण्यभावनी के पवित्रतानी
विशेषताना बळे पूर्वनां पाप पलटीने पुण्यरूप पण थई जाय छे, ए ज रीते तीव्र
पापथी