Atmadharma magazine - Ank 264
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : आत्मधर्म : प :
संतो ऊंघता जीवोने जगाडे छे
(समयसार कळश टीका–प्रवचनो)
*
आचार्यदेव ऊंघता जीवोने संबोधन करे छे के अरे जीवो!
जागो....तमारा चैतन्यनिधानने देखो. परभावोने निजपद मानीने
ते तरफ दोडी रह्या छो, पण पाछा वळो...पाछो वळो...ए रागादि
विभावमां तमारुं पद नथी. तमारुं पद तो आ अत्यंत सुंदर
चैतन्यधाममय छे; आ तरफ आवो आ तरफ आवो. आ रीते सन्तो
करुणापूर्वक, परभावो तरफ वेगथी दोडी रहेला प्राणीओने
वात्सल्यनी पुकार करीने पाछा वाळे छे ने निजपद देखाडीने
सिद्धिना पंथे दोरी जाय छे.
पोते स्वानुभवथी जे तत्त्व जाण्युं ते तत्त्व दर्शावतां आचार्यदेव कहे छे के हे
जीवो! अनादिथी स्वतत्त्वने भूलीने मोहमां सूता छो, हवे तो जागो, ने तमारुं
तत्त्व अंतरमां अत्यंत शुद्ध छे तेने देखो. आ शरीरादिमां के रागादि परभावमां
तमारुं निजपद नथी, तमारुं निजपद तो शुद्ध चैतन्यधातुमां छे. सिद्धपद
अंतरमांथी प्रगटे छे, कांई बहारथी नथी आवतुं. आवा सिद्धपदनो धणी आत्मा
तेने भूलीने तमे रागना धणी थया....शुद्ध आत्माने नहि देखनारा हे अंध
प्राणीओ! तमे मोहथी अंध बनीने निज पदने भूलीने, परभावने ज निजपद
मानीने तेमां लीन बन्या छो, पण ए पद तमारुं नथी,