: ६ : आत्मधर्म : आसो :
नथी; माटे तमे जागो ने आ तरफ आवो.....आ तरफ आवो अंतरमां जे अत्यंत शुद्ध
चैतन्यधातु छे ते ज तमारुं पद छे, तेने स्वानुभवमां ल्यो.
संयोग अने संयोगनी उपाधिथी थयेला रागद्वेषभावो ते तारुं घर नथी, ते तारुं
रहेठाण नथी, तेमां तुं नथी, तारे माटे ते अस्थान छे चारे गतिना जेटला उपाधिभावो
छे तेमां तुं नथी. तुं तो तारा शुद्ध चैतन्यस्वभावमां छो, तेमां ज तारुं रहेठाण छे, माटे
हे अंध! हवे तुं जाग ने प्रतिबोध पाम. तारा स्वतत्त्वने देख. अंतरमां तेने
स्वानुभवमां ले.
सामान्यपणे २१ प्रकारना उदयभाव ने विशेषपणे असंख्य प्रकारना के अनंत
प्रकारना जे उदयभाव ते एक्केय तारुं स्वरूप नथी, ए तो बधा उपाधिरूप छे. कोई पण
अनुकूळ सामग्री के कोई पण प्रतिकूळ सामग्री ते जीवनुं स्वरूप नथी; भगवान
सर्वज्ञदेवे तो जीवनुं स्वरूप उपयोगमय जोयुं छे, ते उपयोगने कदी पण जड साथे के
राग साथे कदी एकमेकपणुं नथी. माटे तेमां एकताबुद्धि छोड. आत्मा तो उपयोगमय
छे–एम शुद्ध स्वसत्तानो देख. कई रीते देख? के स्वानुभवथी देख.
अरे, त्रणलोकने साक्षात् देखनारा भगवान सर्वज्ञदेवे ते बधा आत्मा सदाय
उपयोगस्वरूप छे–एम जोयुं छे, संतोए स्वानुभवथी एवो ज आत्मा अनुभव्यो छे,
अने आगममां पण जीवने उपयोगस्वरूप बताव्यो छे. आम देवगुरु ने शास्त्र त्रणेये
उपयोग– स्वरूप आत्मा कह्यो छे, पण देह स्वरूप के रागस्वरूप कह्यो नथी; तो तुं तेने
देहरूप ने रागरूप केम अनुभवे छे? ए तो तारो मोह छे, मोहथी अंध बनीने तुं तारा
स्वरूपने भूल्यो छो. अहीं आचार्यदेव जगाडे छे के हे जीव! हवे तो जाग! अनादिथी
अत्यारसुधी तो मोहमां सूतो ने अंध बन्यो, पण हवे तो जाग ने आंख खोल. तारुं
शुद्धस्वरूप संतोए तने वारंवार बताव्युं, ते सांभळीने हवे तो जाग....ने मोहबुद्धि
छोड! फरीफरी करुणाथी कहे छे के अरे भाई! आ ते तने केम शोभे? राजा
राजसिंहासनने बदले विष्टाना उकरडामां निजपद मानीने रखडे ए ते कांई शोभे? तेम
चैतन्यमय निजपदने भूलीने आ चैतन्यराजा परभावमां सुवे ए ते कांई तेने शोभे
छे? करोडो रूपियानी किंमतनो हीरो तेने कोई बे रूपियामां वेची नांखे तो लोकमां ते
मूरख कहेवाय, तेम, अनंत महिमावंत आ चैतन्यहीरो, तेने क्षणिक पुण्य जेटलो
मानीने अज्ञानी रागमां वेंची दे छे ते मोटो मूरख छे. अनंता ईन्द्रपद वडे पण जेनां
मूल्य न आंकी शकाय एवो आ चिदानंदस्वभाव, के जेनुं एक क्षण चिंतन करतां
केवळज्ञानादि परमनिधान प्रगटे–एवा निजपदने भूलीने अज्ञानी क्षणिक राग जेटलो
पोताने मानीने, निजनिधानने रागमां वेंची दे छे. ते अंधप्राणी निजनिधानने देखतो
नथी. आचार्यदेव तेने परम करुणाथी जगाडे छे. हे अंधप्राणी! हवे तुं जाग....अमे तने
तारुं धु्रवपद बताव्युं तेने तुं जो. जगतमां जेनी कोई तूलना करी न शके एवा तारा
स्वपदने तुं अनुभवमां ले.