Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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जेम काटवाळी डब्बीमां किंमती झगझगतुं रत्न रह्युं होय, त्यां ते रत्न
डब्बीथी अने काटथी जुदुं छे ने पोताना प्रकाश वगेरे गुणोथी सहित छे; तेम
देहरूपी डब्बीमां कषायरूपी काटनी वच्चे रहेलुं चैतन्यप्रकाशथी चमकतुं आत्मरत्न
जड देहथी जुदुं छे ने कषायरूपी काटथी पण जुदुं छे. डब्बीमांथी रत्न उपाडी ल्यो
त्यां ते डब्बीथी ने काटथी जुदुं ज छे, तेम रागथी ने देहथी पार चैतन्यतत्त्वने
अंतरद्रष्टिमां ल्यो त्यां ते तत्त्व रागथी ने देहथी पार चैतन्यतेजपणे अनुभवमां
आवे छे.
अहो, अनंत–अनंत छेडा वगरना आकाश करतां य जेना ज्ञानस्वभावनी
भाई, पहेलांं तुं लक्षणद्वारा भिन्न ओळखीने ज्ञानने अने रागने जुदा तो
अहो, आत्मज्ञानथी उत्पन्न जे वीतरागी परम आनंद, तेना आस्वादथी
धर्मीने समस्त परभावो ने परद्रव्योनो अनुराग छूटी गयो छे, एटले तेनाथी
विरक्त थईने ते शुद्धात्माने ज चिंतवे छे; तेने संसार छूटी जाय छे. माटे
भेदज्ञानपूर्वक शुद्धात्मध्यान कर्तव्य छे. आवा ध्यान वगर बीजा उपायथी आत्मा
जाणवामां आवी जाय–एवो एनो स्वभाव नथी.