: ६ : आत्मधर्म : कारतक :
जीव–अजीवनुं भेदज्ञान
(परमात्म–प्रकाश)
वीतरागस्वभावनुं ग्रहण वीतरागपरिणति वडे थाय छे. जे
पर्याय शुद्धस्वभावने अनुभववा अंतरमां जाय छे ते पर्याय पण
तेवी ज शुद्ध थई जाय छे. ने रागादिथी भिन्न परिणमी जाय छे.
त्यारे ज साचुं भेदज्ञान छे.
जेटला भागमां शुद्धआत्मा अनंतगुणसम्पन्न छे, तेटला ज भागमां तेनी
निर्विकल्प शुद्ध अनुभूति छे, राग पण तेटला ज भागमां छे ने शरीर–कर्मनो संबंध
पण तेटला ज क्षेत्रमां छे. हवे एक क्षेत्रमां ए चारे प्रकार होवा छतां तेनुं पृथक्करण–
शुद्धात्मा अनंतगुणसम्पन्न छे, तेनी निर्विकल्प अनुभूति तेनी साथे अभेद
छे; रागादिक परभावो खरेखर ए स्वभावथी जुदा छे, शुद्ध चैतन्यमय जीवनी
अपेक्षाए रागादिक अजीव छे, ने देह–कर्मादि तो भिन्न अजीव छे. देह के कर्म साथे
जीवनो संबंध कहेवो ते तो अद्भुत छे, ते खरेखर जीवमां न होवा छतां एक
क्षेत्रअपेक्षाए जीवना कहेवा ते असद्भुत छे. राग पोतानी पर्यायमां छे पण ते
अशुद्ध छे, तेथी अशुद्ध निश्चयथी ज राग आत्मानो छे, शुद्धनिश्चयमां आत्मा
रागरहित छे. माटे शुद्धआत्मा उपादेय छे. रागादि अशुद्धता ते हेय छे.
निर्मळ अनुभूतिनी पर्याय एक समय पूरती शुद्ध परिणति छे तेथी ते
शुद्धसद्भुत व्यवहार छे; पण ते शुद्ध परिणति ते काळे आत्मस्वभावमां तन्मय थईने
व्यापेली छे, अभेद छे. अने ते स्वभावनी अपेक्षाए रागने तो अजीव कह्यो छे.
प्रश्न: –राग तो जीवनी पर्याय छे छतां तेने केम अजीव कह्यो?
उत्तर: –अजीव बे प्रकारे– एक जीव साथे संबंधवाळुं अजीव; ने बीजुं जीव
साथे संबंध वगरनुं अजीव.
रागादिने जीव साथे संबंध होवा छतां ते जीवना स्वलक्षणभूत नथी,
स्वभावभूत नथी, माटे ते अजीव छे; ने पुद्गल–काळ वगेरे पांच द्रव्यो तो जीव साथे
संबंध वगरना अजीव छे; जीवथी तेना प्रदेशो ज जुदा छे. जीव तो शुद्धचेतना–
अनुभूतिमात्र छे. समस्त अजीवथी भिन्न आवो शुद्धजीव ज उपादेय छे–एम जाणवुं.
भाई, तारुं लक्षण तो चेतना छे, ज्ञानअनुभूति ते तारुं खरूं लक्षण छे, ज्ञान
साथे जे सुख, श्रद्धा, चारित्र वगेरे छे ते पण तारुं लक्षण छे, परंतु रागादिक तो तारुं खरूं