Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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अहो, स्वरूपनी सन्मुखता वगर जेनो एक समय पण जतो नथी,
प्रश्न: –शुद्धआत्मा केवी रीते उपादेय थाय?
उत्तर: –तेनी सन्मुख परिणतिने जोडवाथी ज ते उपादेय थाय छे. विकल्पवडे
भाई, मार्ग तो अंदरमां छे; सुखनो मार्ग अंतरना परमात्मतत्त्वमां छे, ते
जुओ, बे पडखां–एक तरफ आखो शुद्धआत्मा, बीजी तरफ आखो संसार;
तेमांथी एक उपादेय त्यां बीजुं हेय, ने बीजुं ज्यां उपादेय त्यां पहेलुं हेय. –पण
बंने एकसाथे उपादेयपणे रही शके नहि. स्वभाव अने परभाव एकबीजाथी
विरुद्ध–ए बंनेने एक साथे उपादेय करी शकाय नहि. परमात्मतत्त्वने उपादेय
करतां रागनो एक कणियो पण उपादेय रहे नहि. चैतन्यना अमृतने उपादेय कर्युं
त्यां रागरूप झेरनो स्वाद कोण ल्ये? अंतरात्मबुद्धि प्रगटी त्यां बहिरात्मबुद्धि
छूटी गई. अंतरात्मबुद्धिमां परमआनंदना अमृत पीधां, त्यां रागना वेदननी
रुचि रहे नहि. ऊडे ऊंडे रागनी के बहारना जाणपणानी मीठास रही जाय तो
अंदरनुं परमात्मतत्त्व प्रगट नहि थाय. माटे बाह्यबुद्धि छोडीने चैतन्यनिधानमां
नजर कर. अंतर–अवलोकनथी तारा आत्मामां अपूर्व ज्ञान–आनंदना मंगळ
दीवडा प्रगटशे.