करीने जमे छे. पण एमां तो कांई आनंद नथी; जुओ, आ ‘दीवाळीनां मिष्टान्न’
पीरसाय छे. आवुं परमतत्त्व जेणे अनुभवमां लीधुं तेना आत्मामां ‘दीवाळीना
खरा दीवडा’ प्रगट्या; ए अपूर्व आनंदसहित प्रगटे छे.
उपयोगने जोडीने ज्यारे तेने स्वानुभवमां ल्ये त्यारे पोताना आनंदनुं पोताने
वेदन थाय. परथी मुख फेरवीने स्वमां जोड,–तो स्वसन्मुख योगथी आत्मा
आनंदसहित अनुभवमां आवे छे. परमात्मतत्त्व छे ते ध्यानमां प्रगटे छे. रागमां–
विकल्पमां परमात्मतत्त्व प्रगटतुं नथी, एनाथी तो विमुख परमतत्त्व छे.
परमात्मतत्त्वमांथी तो आनंदनी नदियुं वहे छे, आनंदना पूर उल्लसे छे,–पण
क््यारे? के उपयोगनुं तेमां जोडाण करे त्यारे.
प्रवाह एनी सामे जोवाना टाणां आव्या छे, त्यारे परनी सामे न जो. क्षणेक्षणे–
पळेपळे तारी पर्यायने आत्मा तरफ वाळ! जगतमां चालता विकल्पो ने संयोगो
मारामां छे ज नहि, –एम एनाथी पराङमुख थईने, दुनियाथी उदास थईने
आत्मतत्त्वमां सन्मुख था.
बीजे एनुं चित्त लागे नहि, बधेथी उपेक्षा थई जाय,–तेम मुमुक्षुजीवने चैतन्यना
परम प्रेम पासे आखा जगतनी उपेक्षा थई गई छे. हवे मारा चैतन्यतत्त्व पासे हुं
जाउं छुं. तेमां क्षणनो विलंब हवे सहन थतो नथी.
माटे मने रजा आपो! माता! सुखने माटे तमारे पण ए ज मार्ग अंगीकार कर्ये
छूटको छे. आत्माने साधवा मांगुं छुं, तेमां क्षणनोय विलंब पालवतो नथी, माटे हे
माता! रजा आप! तुं मारी छेल्ली माता छो, हवे बीजी माता के बीजो भव अमे
करवाना नथी. त्यारे माता पण धर्मात्मा छे, ते कहे छे के बेटा! तुं तारा