अनुभव करावतुं जे परमतत्त्व अंतरमां प्रकाशमान थाय छे तेने
हे जीव! तुं उपादेय जाणीने ध्याव. स्वानुभूतिवडे जेणे
परमतत्त्व अनुभवमां लीधुं तेना आत्मामां ‘दीवाळीना साचा
दीवडा’ प्रगट्या–जुओ, आ ‘दीवाळीना मिष्टान्न’ पीरसाय छे;
अंतर अवलोकनवडे आत्मामां अपूर्व ज्ञान–आनंदना दीवडा
प्रगटाववा ए ज साची दीवाळी!
आ देह, –ते देहथी पार अतीन्द्रिय आत्माने ज्यां अनुभूतिमां लीधो त्यां परनो
संबंध खलास थई गयो, कर्म के रागद्वेष पण छूटी गया. ज्यां शुद्धात्मानी
अनुभूति नथी त्यां ज रागद्वेष–कर्म ने शरीरनो संबंध छे. पण ज्यां अनुभूतिवडे
पोते पोतामां समाई रह्यो त्यां परनो संबंध न रह्यो, अशुद्धता न रही. आ रीते
शुद्धपरमात्मतत्त्वनी भावनाथी संसार छेदाई जाय छे.
व्यवहार छे ते बधोय शुद्धात्माना अनुभवथी बहार रही जाय छे. अहा,
परमतत्त्वने ज्यां ध्यानमां लीधुं त्यां ते तत्त्व परम–अपूर्व आनंदरूप छे. अहा,
संतोने आवुं तत्त्व परमप्रिय छे. एने तुं उपादेय जाणीने ध्याव. जगतमां
आनंददायक होय तो आ परम चैतन्यतत्त्व ज छे; एटले ते ज उपादेय छे. जे
आनंददायक न होय ते उपादेय केम होय? जे उपादेय होय ते आनंददायक ज होय
छे. जे तत्त्व आनंद न आपे एने तो कोण आदरे?