Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : आत्मधर्म : ३ :
स्वानुभूतिमां आनंददायक
परमतत्त्व प्रगटे छे
ए ज दिवाळीना साचा दिवडा छे
स्वानुभूतिमां स्थित संतोने कोई अपूर्व आनंदनो
अनुभव करावतुं जे परमतत्त्व अंतरमां प्रकाशमान थाय छे तेने
हे जीव! तुं उपादेय जाणीने ध्याव. स्वानुभूतिवडे जेणे
परमतत्त्व अनुभवमां लीधुं तेना आत्मामां ‘दीवाळीना साचा
दीवडा’ प्रगट्या–जुओ, आ ‘दीवाळीना मिष्टान्न’ पीरसाय छे;
अंतर अवलोकनवडे आत्मामां अपूर्व ज्ञान–आनंदना दीवडा
प्रगटाववा ए ज साची दीवाळी!
(परमात्मप्रकाश–प्रवचन गा. ३प. : आसो वद चोथ)
निर्विकल्प शान्त अनुभूतिथी आत्मा वेदनमां आवे छे; ए अनुभूतिथी
विपरीत एवा जे राग–द्वेष–मोह, तेनाथी उत्पन्न थयेला कर्मो अने ते कर्मोथी थयेल
आ देह, –ते देहथी पार अतीन्द्रिय आत्माने ज्यां अनुभूतिमां लीधो त्यां परनो
संबंध खलास थई गयो, कर्म के रागद्वेष पण छूटी गया. ज्यां शुद्धात्मानी
अनुभूति नथी त्यां ज रागद्वेष–कर्म ने शरीरनो संबंध छे. पण ज्यां अनुभूतिवडे
पोते पोतामां समाई रह्यो त्यां परनो संबंध न रह्यो, अशुद्धता न रही. आ रीते
शुद्धपरमात्मतत्त्वनी भावनाथी संसार छेदाई जाय छे.
समभावमां स्थित मुनिओने अने धर्मात्माओने परमआनंद उत्पन्न करतुं
जे कोई परमतत्त्व अंतरमां स्फुरायमान थाय छे–तेने तुं शुद्धात्मा जाण. जेटलो
व्यवहार छे ते बधोय शुद्धात्माना अनुभवथी बहार रही जाय छे. अहा,
परमतत्त्वने ज्यां ध्यानमां लीधुं त्यां ते तत्त्व परम–अपूर्व आनंदरूप छे. अहा,
संतोने आवुं तत्त्व परमप्रिय छे. एने तुं उपादेय जाणीने ध्याव. जगतमां
आनंददायक होय तो आ परम चैतन्यतत्त्व ज छे; एटले ते ज उपादेय छे. जे
आनंददायक न होय ते उपादेय केम होय? जे उपादेय होय ते आनंददायक ज होय
छे. जे तत्त्व आनंद न आपे एने तो कोण आदरे?