Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : कारतक :
महिमा अहो ए ज्ञाननो
(दीवाळीनी बोणीमां सन्तो चैतन्यना निधान आपे छे)
केवळज्ञानस्वभावी आत्माना अपार महिमापूर्वक प्रवचनमां गुरुदेवे कह्युं–हे
जीव! सर्वज्ञ परमात्माए तारा आवा चैतन्यनिधान आप्या छे ते अमे
सर्वज्ञना प्रतिनिधि तरीके तने बतावीए छीए. अहो, आवा निधान मळतां
मुमुक्षु केवो राजी–राजी थाय! वाह! संतोए मारा अपार निधान मने
आप्यां.–दीवाळीनी बोणीमां संतोए कृपापूर्वक मने चैतन्यनिधान आप्या.
(परमात्मप्रकाश–प्रवचन गा. ३८–३९)
संतोना ध्यानमां जे आनंदसहित प्रगटे छे एवो, केवळज्ञानस्वभावथी भरपूर
आत्मा ज परम उपादेयरूप छे. जेना आनंदनी, जेना ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यनी शी
वात? ए स्वभावना महिमा पासे बीजा बधायनो महिमा ऊडी जाय छे.
चारे बाजु अनंत–अमाप एवुं जे खाली आकाश (अलोकाकाश) जेनी
मध्यमां आ लोक एक रजकण जेटलो छे; ते अनंत अलोक पण ज्ञानरूपी गगनमां
एक नक्षत्र समान भासे छे, आवुं विशाळ ज्ञानसामर्थ्य छे; अनंत अलोकनी
विशाळता करतांय जेना ज्ञानसामर्थ्यनी विशाळता अनंतगुणी छे,–आवो तारो
स्वभाव छे, तेने हे जीव! तुं वीतरागीद्रष्टिथी उपादेय कर. आवा ज्ञानस्वभावने
उपादेय करीने ज्यां लीन थयो त्यां लोकालोक तो स्वयमेव ज्ञेयपणे आवीने ज्ञानमां
झळके छे.
अहा, चैतन्यना आ महासागर पासे पुण्य–पाप के अल्पज्ञता पण तुच्छ
भासे छे. एककोर मोटो चैतन्य भगवान आखा जगतनो ज्ञाता, ने बीजीकोर
आखुं जगत ज्ञेयपणे; छतां ज्ञान पासे ज्ञेय तो अनंतमा भागना लागे छे. आवा
ज्ञानस्वभावने उपादेय कर. जेनी पासे चार ज्ञान पण अनंतमा भागना अल्प
तुं ज छो. अहा, आवा बेहद ज्ञान साथे आनंद पण बेहद छे.
ज्ञान स्वभावमां अतीन्द्रिय आनंदरस जामेलो पड्यो छे; ज्ञान ने आनंदथी
भरपूर आत्मा–एना निधान सन्तो तने बतावे छे. सन्तो दीवाळीनी बोणीमां चैतन्यना
निधान आपे छे. संतो कहे छे के हे जीव! सर्वज्ञ परमात्माए तारा आवा चैतन्यनिधान
आप्या छे, ते अमे सर्वज्ञना प्रतिनिधि तरीके तने बतावीए छीए. अहो, आवा निधान
मळतां मुमुक्षु केवो राजी–राजी थाय!! वाह! संतोए मारा अपार निधान मने आप्यां.