: ८ : आत्मधर्म : कारतक :
देहादि के संकल्प–विकल्प जे चीज शुद्धआत्माथी भिन्न छे तेना वडे
शुद्धात्मानुं ग्रहण केम थई शके? न थाय. तो कई रीते ग्रहण थाय? के वीतरागी
स्वसंवेदनरूप अनुभवज्ञानथी ज आत्मानो स्वभाव ग्रहणमां आवे छे. जे
स्वसन्मुखपरिणति आत्मामां अभेद थई तेमां ज आत्मानुं ग्रहण छे.
परसन्मुखपरिणतिमां आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी. वीतराग स्वभावनुं ग्रहण
वीतरागपरिणति वडे थाय छे. वीतरागस्वभावनुं ग्रहण रागवडे थतुं नथी.
भाई, पहेलांं आवा सम्यक् मार्गनो निर्णय तो कर. आवा तारा स्वभावने
लक्षगत करीने तेनो उत्साह लाव.
जे पर्याय शुद्धस्वभावने अनुभववा अंतरमां जाय छे ते पर्याय शुद्ध–
आ नुतन वर्षमां
केवळज्ञानना मंगलप्रकाशथी
प्रकाशित आ आत्मस्वभाव अमने
प्राप्त हो. जीवनमां वहेण
चैतन्यसागर तरफ वहो. जीवननी
बधी प्रवृत्ति चैतन्यसाधनाने
अनुरूप ज हो. हे शुद्धात्मदाता
पंचपरमेष्ठी भगवंतो! मारा
ज्ञानमां सदाय बिराजमान रहो ने
मने अनुग्रहपूर्वक चैतन्यनी
आराधनानो उत्साह आप्या करो.