Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : कारतक :
छतां ते जीवने शरीरना संयोगनुं किंचित् सुख नथी; ते पण मोहथी दुःखी ज छे.
अनुकूळ–प्रतिकूळ संयोगथी कोई जीव सुखी–दुःखी नथी. पोतानी अशुद्ध–चेतनारूप
राग–द्वेषथी ज जीव दुःखी छे. शुद्धस्वभावी भगवान ते पोताने भूलीने भवमां
भटकी रह्यो छे. दसहजार वर्षथी शरू करीने एकेक समयनी वृद्धिथी ३३
सागरोपमना असंख्याता वर्षो सुधीना असंख्य प्रकारनी स्थितिना जे असंख्य
भव, ते एकेक भवमां जीव अनंत अनंतवार उपजी चूक््यो छे. अनंत गुणथी
भरपूर भगवान, एकेक गतिमां अनंत भव करी चूक््यो छे. अरे जीव! तुं तारुं
भगवानपणुं तो भूल्यो, ने तें जे भव कर्या तेने पण तुं भूल्यो. १० हजार वर्ष,
पछी एक समय वधारे, पछी बे समय वधारे –एम वधतां वधतां सातमी नरकनुं
३३ सागरनुं आयुष्य, –एनी वच्चे जेटला भव थाय–एटला असंख्याता भव, ते
दरेक भवमां अनंतवार जीव उपजी आव्यो, ने अनंती प्रतिकूळता वच्चेथी एवो ने
एवो सोंसरवट नीकळ्‌यो; ए ज रीते स्वर्गनी अनुकूळताना भव पण
दसहजारवर्षथी मांडीने ३१ सागरोपम सुधीनी स्थितिना अनंतवार कर्या. छतां
नरकना संयोगनुं दुःख नथी के स्वर्गना संयोगवाळो सुखी नथी. राग–द्वेषभावने
एकलो अज्ञानपणे करतो थको मोहथी अज्ञानी जीव दुःखी छे.
तारा अशुद्ध परिणामनो कर्ता तुं छो; ने भेदज्ञान वडे ते कर्तापणुं छूटी शके
छे. माटे परथी भिन्न तारा ज्ञानस्वभावने लक्षमां लईने अत्यंत गाढ–पाकुं
भेदज्ञान कर. अनादिथी पर साथे जे गाढ एकत्वबुद्धि छे तेने गाढ भेदज्ञानवडे दूर
कर....घणा घणा प्रकारे भेदज्ञाननो अभ्यास करीने द्रढ–पाकुं–गाढ भेदज्ञान कर.
क््यांय पर साथे अंशमात्र एकत्वबुद्धि न रहे, ने ज्ञान साथे रागादिनी पण
अंशमात्र एकताबुद्धि न रहे –एवुं स्पष्ट भेदज्ञान करीने तारा भिन्न
ज्ञानस्वभावने अनुभवमां ले. जेना अनुभवथी तारुं आ दुःखदायी भवभ्रमण
टळशे ने आत्मामां शीतळ अतीन्द्रिय आनंदरसनी धारा वहेशे.
सख्त गरमीमां अमृतनी वृष्टि
आसो वद सातमे बपोरनुं आ प्रवचन चालतुं हतुं, गुरुदेव वैराग्यनुं
अमृत वरसावता हता; सखत गरमी हती; त्यां एकाएक धोमधखता तडका
वच्चे धोधमार वरसाद आव्यो, ने तरत गुरुदेवे कह्युं: अरे, सातमी नरकनी
धोमधखती पीडा वच्चे रहेलो जीव त्यां सम्यग्दर्शन पामे छे ने आत्मामां
अमृतना वरसाद वर्षे छे. सातमी नरकनी प्रतिकूळतानी ज्वाळा वच्चे पण
अंतरद्रष्टिवडे चैतन्यना शीतळ–शांत अमृतने वेदे छे. संयोगमांथी द्रष्टि पाछी
खसेडीने स्वभावमां द्रष्टि जोडतां आत्मामां परम–आनंदना धोध वरसे छे, ने
अनादिना मोहनो तीव्र आताप मटीने परम शीतळता अनुभवाय छे.