Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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अरे, तारुं तत्त्व शुद्ध चैतन्यमय, निर्विकल्प, तेमां विकल्पनो के शब्दनो
प्रवेश क््यां छे? आत्मा तो स्वानुभूतिमां गम्य छे. अंतर्मुख निर्मळध्याननो विषय
आत्मा छे. अंतर्मुख उपयोगमां आत्मा प्रगटे छे. ईन्द्रिय के मननो विषय ते थाय
नहि. माटे हे शिष्य! आवा ईन्द्रियातित आत्माने स्वानुभवमां लईने तेने ज
उपादेय जाण. आत्माना अनुभव वगरनां शास्त्रभणतर के पंडिताई–ए कांई
मोक्षनुं कारण थतुं नथी. शास्त्रोनी पंडिताई जुदी चीज छे ने अनुभूतिगम्य
परमतत्त्व ए जुदी चीज छे.
स्वानुभूतिगम्य तारा परमात्मतत्त्वने तुं वाणीना विलासथी के विकल्पना
विस्तारथी लक्षमां लेवा मांगीश तो ए तत्त्व एम लक्षमां नहि आवे आ
परमतत्त्व एवुं तूच्छ नथी के विकल्प वडे गम्य थई जाय. विकल्प वडे के वाणी
तरफना वलणथी आत्मस्वरूपनी प्राप्ति थई जशे एम जे माने तेणे विकल्पथी ने
वाणीथी पार एवा आत्मतत्त्वना अचिंत्य–परम महिमाने जाण्यो नथी.
परमात्मतत्त्व अंतरमां छे, ते परमात्मतत्त्वनो प्रकाश तो स्वानुभूति वडे ज
थाय छे. वाणी तो जड छे ने विकल्प तो अंधकार छे, तेमां परमात्मतत्त्वनो प्रकाश
नथी. माटे हे जीव! तुं बहिरात्मपणुं छोडी, अंतरात्मपणुं प्रगट करी
परमात्मस्वरूपने ध्यानमां ले. परवस्तु सामे जोये स्ववस्तु अनुभवमां नहि आवे.
समाधिमां एटले के उपयोगनी अंतर्मुख एकाग्रतामां तो रागरहित परम शांतिनुं
वेदन छे. उदयभाव वडे तारो परम स्वभाव अनुभवमां नहि आवे. तारो स्वभाव
उदयभावथी तो दूर–दूर छे. सिद्ध भगवंतोनुं अतीन्द्रियस्वरूप पण रागथी के
परसन्मुखी क्षयोपशमथी अर्थात् ईन्द्रियज्ञानथी ओळखातुं नथी, तो तेमना जेवुं
पोताना आत्मानुं स्वरूप छे ते पण ईन्द्रियज्ञानथी जणातुं नथी, परालंबी
क्षयोपशमज्ञानथी पण जणातुं नथी, तो पछी रागादि उदयभावथी तो ते केम
जणाय?
अरे, आत्मानुं स्वरूप सिद्धभगवान जेवुं पोताथी परिपूर्ण छे. शुद्ध आत्माना
ध्यान वडे ज आत्मानी सिद्धि थाय छे; एने जाण्या वगर लोको अन्य मार्गमां लागेला
छे, पुण्यना ने पराश्रयना मार्गमां लाग्या छे, पण तेमां परमतत्त्व प्राप्त थतुं नथी.
परमतत्त्व अंतरमां छे, तेनो मार्ग अंतरमां छे. विकल्पमां शोध्ये ते नहि मळे.
शास्त्रोना शब्दोथी आत्मा न जणाय–ए वात सांभळतां घणा भडके छे के अरे!
शास्त्रनो अनादर थई जशे! ! पण भाई, शास्त्रोए ज कह्युं तेनो साचो आशय समजवो
तेमां ज शास्त्रोनो आदर छे, ने तेनाथी विपरीत मानवुं तेमां शास्त्रोनो अनादर छे.
शास्त्रो कहे छे के अमे पराश्रयथी लाभ थवानुं कहेतां नथी; छतां पराश्रयथी जे लाभ