साधन आत्माथी जुदुं न होय. स्वाश्रित निश्चय छे, ते ज साचो मार्ग छे. व्यवहार
तो पराश्रित छे ने पराश्रय तो बंधनुं कारण छे. ते पराश्रयभावमां चैतन्यना
आनंदनो स्वाद जरापण आवतो नथी. अंदरमां स्वाश्रयभावे परिणमेलुं ज्ञान
अतीन्द्रिय– आनंदना स्वादसहित छे, तेनाथी ज परमात्मस्वरूपनी प्राप्ति थाय छे.
आ सिवाय बीजो उपाय नथी. तेथी छहढाळामां कहे छे के–
तौड सकल जग दंद–फंद निज आतम ध्यावो.
जिनवाणीनो उपदेश स्वाश्रयनो छे, स्वाश्रित मोक्षमार्ग जिनवाणीए बताव्यो छे,
तेने बदले पराश्रये मोक्षमार्ग मान्यो तेणे जिनवाणीनी आज्ञा न मानी, माटे ते
जैन नथी. जेणे स्वाश्रयथी आत्माने जाण्यो तेणे ज जिनवाणीनी आज्ञा मानी,
तेणे ज जिनवाणीनी साची उपासना करी; जिनवाणीए जेवो आत्मा कह्यो तेवो
तेणे अनुभवमां लीधो, ए ज जिनवाणीनी उपासना छे.
शास्त्रो कांई एम नथी कहेतां के तुं अमारी सामे ज जोया कर. शास्त्रो तो एम कहे छे
के तुं तारा सामे जो; अमारुं लक्ष छोडीने अंतर्मुख था ने तारा आत्माने ध्यानमां ले.
वस्तु वचनथी अगोचर छे, विकल्पथी अगोचर छे ने ध्यानमां ज गोचर छे. हे जीव!
आवा तारा परमात्मस्वरूपने साधवा द्रढ संकल्पी था. केमके ‘हरिनो मारग छे
शूरानो’ .
सन्तोनां वचननी खबर नथी. जुओ, आ वीतरागनां वचन!