औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.
आश्रय नहि!! वाणीथी पण लाभ नहि!! एम ते कायरपणे पराश्रयमां लाग्यो
रहे छे. पण शूरवीर थईने स्वाश्रय करतो नथी. वीतरागनी वाणीए तो
स्वाश्रयमार्गनो ढंढेरो पीटीने उपदेश आप्यो छे.
आत्मतत्त्व ध्यानगम्य छे, वाणीगम्य नथी. निश्चय–व्यवहाररूप जे द्विविध
मोक्षमार्ग तेनी प्राप्ति नियमथी ध्यानवडे ज थाय छे.
पण एवा स्वाश्रयना लक्षे ज सांभळे छे. –तो ज जिनवाणीनुं साचुं श्रवण छे.
पराश्रयभावथी लाभ माने के मनावे–त्यां तो जिनवाणीनुं श्रवण पण साचुं नथी.
विनय– बहुमान ने भक्ति आव्या विना रहे नहि. ध्यानवडे अंतरना
चैतन्यतत्त्वने जाण्या वगर वेद–शास्त्रोनां भणतर पण अन्यथा छे; केवळ
आनंदरूप परमतत्त्व छे–तेमां पर्यायने जोडवी–ते ज एक मुक्तिनो उपाय छे.
लोकना घणा जीवो आवा तत्त्वने जाण्या वगर अन्य मार्गमां लागी रह्या छे,–
पराश्रये विकारभावथी लाभ मानी रह्या छे. पण मार्ग तो अंतरमां
चैतन्यस्वभावना आश्रये छे. माटे अंतरना ध्यानवडे शुद्धआत्मा ज उपादेय छे, ने
ए सिवाय पराश्रयभावो समस्त छोडवा जेवा छे,–ए तात्पर्य छे, ने ए
जिनवाणीनुं फरमान छे.