Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : कारतक :
वचनामृत वीतरागनां परमशांत रसमूळ,
औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.
स्वाश्रयनी आवी वात......जे समजतां अंतर्मुख परिणति थाय ने परम
शांतरस प्रगटे,–पण अज्ञानी ए वात सांभळतां भडके छे के अरे, वाणीनो पण
आश्रय नहि!! वाणीथी पण लाभ नहि!! एम ते कायरपणे पराश्रयमां लाग्यो
रहे छे. पण शूरवीर थईने स्वाश्रय करतो नथी. वीतरागनी वाणीए तो
स्वाश्रयमार्गनो ढंढेरो पीटीने उपदेश आप्यो छे.
गणधरोनी समक्ष, ईन्द्रोनी समक्ष, चक्रवर्तीनी समक्ष तेमज लाखोकरोडो
देव– मनुष्यो–तिर्यंचोनी सभामां तीर्थंकर भगवाननी वाणीए एम बताव्युं के आ
आत्मतत्त्व ध्यानगम्य छे, वाणीगम्य नथी. निश्चय–व्यवहाररूप जे द्विविध
मोक्षमार्ग तेनी प्राप्ति नियमथी ध्यानवडे ज थाय छे.
श्रवण वखते श्रवण पण एवुं करे छे के स्वाश्रय तरफ वळुं तेटलो मने
लाभ छे. संभळावनार सन्त पण ए स्वाश्रयनी वात संभळावे छे, ने सांभळनार
पण एवा स्वाश्रयना लक्षे ज सांभळे छे. –तो ज जिनवाणीनुं साचुं श्रवण छे.
पराश्रयभावथी लाभ माने के मनावे–त्यां तो जिनवाणीनुं श्रवण पण साचुं नथी.
अहो, आवो स्वाश्रितमार्ग महान भाग्यथी सांभळवा मळे छे. ने जेणे
आवो मार्ग लक्षगत कर्यो तेने तेना संभळावनार गुरुप्रत्ये ने शास्त्रोप्रत्ये खरो
विनय– बहुमान ने भक्ति आव्या विना रहे नहि. ध्यानवडे अंतरना
चैतन्यतत्त्वने जाण्या वगर वेद–शास्त्रोनां भणतर पण अन्यथा छे; केवळ
आनंदरूप परमतत्त्व छे–तेमां पर्यायने जोडवी–ते ज एक मुक्तिनो उपाय छे.
लोकना घणा जीवो आवा तत्त्वने जाण्या वगर अन्य मार्गमां लागी रह्या छे,–
पराश्रये विकारभावथी लाभ मानी रह्या छे. पण मार्ग तो अंतरमां
चैतन्यस्वभावना आश्रये छे. माटे अंतरना ध्यानवडे शुद्धआत्मा ज उपादेय छे, ने
ए सिवाय पराश्रयभावो समस्त छोडवा जेवा छे,–ए तात्पर्य छे, ने ए
जिनवाणीनुं फरमान छे.
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