Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : आत्मधर्म : १५ :
साधकनी विचारश्रेणी अने
स्वभावनो रंग
आध्यात्मिक नवधाभक्तिनुं सुंदर वर्णन
मोक्षसाधक धर्मात्मानी दशा केवी होय, एनी विचारधारा केवी अंतर्मुखी
होय, एने चैतन्यनो रंग केवो होय, ने शुद्धात्मा प्रत्ये नवधाभक्ति केवी होय,
ते अहीं टूंकाणमां छतां घणी ज भावप्रेरक शैलीथी गुरुदेवे समजाव्युं छे.
“ज्यारे ज्ञाता कदाचित बंधपद्धत्तिनो विचार करे त्यारे ते जाणे के आ बंध–
पद्धत्तिथी मारुं द्रव्य अनादिकाळथी बंधरूप चाल्युं आव्युं छे; हवे ए पद्धत्तिनो मोह
तोडीने वर्त. आ पद्धत्तिनो राग पूर्वनी जेम हे नर! तुं शा माटे करे छे? आम
क्षणमात्र पण बंधपद्धत्तिने विषे ते मग्न थाय नहि. ते ज्ञाता पोतानुं स्वरूप
विचारे, अनुभवे, ध्यावे, गावे, श्रवण करे; तथा नवधाभक्ति, तपक्रिया ए
पोताना शुद्धस्वरूपनी सन्मुख थईने करे;–ए ज्ञातानो आचार छे. एनुं ज नाम
मिश्रव्यवहार छे.”
जुओ, आ साधक जीवनो व्यवहार, ने एनी विचारश्रेणी! एने स्वभावनो
केटलो रंग छे? वारंवार एनो ज विचार, एनुं ज मनन, एना ज ध्यान–अनुभवनो
अभ्यास, एनां ज गुणगान ने एनुं ज श्रवण, सर्व प्रकारे एनी ज भक्ति, जे कांई
क्रियामां प्रवर्ते छे तेमां सर्वत्र शुद्धस्वरूपनी सन्मुखता मुख्य छे. एना विचारमां पण
स्वरूपना विचारनी मुख्यता छे, तेथी कह्युं के “ज्ञाता ‘कदाचित’ बंधपद्धत्तिनो विचार
करे.....” त्यारे पण बंधपद्धतिमां ते मग्न थतो नथी पण तेनाथी छूटवाना ज विचार करे
छे. अज्ञानी तो बधुंय रागनी सन्मुखताथी करे छे, शुद्धस्वरूपनी सन्मुखता तेने नथी. ते
कर्मबंधन वगेरेना विचार करे तो तेमां ज मग्न थई जाय छे ने अध्यात्म तो एककोर रही
जाय छे. अरे भाई, एवी बंधपद्धत्तिमां तो अनादिथी तुं वर्ती ज रह्यो छे.......हवे तो एनो
मोह छोड. अनादिथी ए पद्धत्तिमां तारुं जराय हित न थयुं, माटे एनो मोह तोडीने हवे तो
अध्यात्मपद्धत्ति प्रगट कर. ज्ञानीए तो तेनो मोह तोडयो ज छे ने अध्यात्मपद्धत्ति प्रगट
करी छे, पण हजी रागनी कंईक परंपरा बाकी छे तेन
अध्यात्मनी उग्रता वडे छेदवा मांगे
छे. एटले रागनी पद्धतिमां ते एकक्षण पण मग्न थतो नथी.–जुओ, आ मोक्षना साधकनी
दशा! ‘तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ...... ’ शुद्धआत्मारूप