ते अहीं टूंकाणमां छतां घणी ज भावप्रेरक शैलीथी गुरुदेवे समजाव्युं छे.
तोडीने वर्त. आ पद्धत्तिनो राग पूर्वनी जेम हे नर! तुं शा माटे करे छे? आम
क्षणमात्र पण बंधपद्धत्तिने विषे ते मग्न थाय नहि. ते ज्ञाता पोतानुं स्वरूप
विचारे, अनुभवे, ध्यावे, गावे, श्रवण करे; तथा नवधाभक्ति, तपक्रिया ए
पोताना शुद्धस्वरूपनी सन्मुख थईने करे;–ए ज्ञातानो आचार छे. एनुं ज नाम
मिश्रव्यवहार छे.”
अभ्यास, एनां ज गुणगान ने एनुं ज श्रवण, सर्व प्रकारे एनी ज भक्ति, जे कांई
क्रियामां प्रवर्ते छे तेमां सर्वत्र शुद्धस्वरूपनी सन्मुखता मुख्य छे. एना विचारमां पण
स्वरूपना विचारनी मुख्यता छे, तेथी कह्युं के “ज्ञाता ‘कदाचित’ बंधपद्धत्तिनो विचार
करे.....” त्यारे पण बंधपद्धतिमां ते मग्न थतो नथी पण तेनाथी छूटवाना ज विचार करे
छे. अज्ञानी तो बधुंय रागनी सन्मुखताथी करे छे, शुद्धस्वरूपनी सन्मुखता तेने नथी. ते
कर्मबंधन वगेरेना विचार करे तो तेमां ज मग्न थई जाय छे ने अध्यात्म तो एककोर रही
जाय छे. अरे भाई, एवी बंधपद्धत्तिमां तो अनादिथी तुं वर्ती ज रह्यो छे.......हवे तो एनो
मोह छोड. अनादिथी ए पद्धत्तिमां तारुं जराय हित न थयुं, माटे एनो मोह तोडीने हवे तो
अध्यात्मपद्धत्ति प्रगट कर. ज्ञानीए तो तेनो मोह तोडयो ज छे ने अध्यात्मपद्धत्ति प्रगट
करी छे, पण हजी रागनी कंईक परंपरा बाकी छे तेन
दशा! ‘तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ...... ’ शुद्धआत्मारूप