: १६ : आत्मधर्म : कारतक :
समयसारनी ज्यां रुचि थई त्यां परभावनी रुचि रहे नहि; अरे, जगत आखानी
रुचि छूटी जाय. जेने अंशमात्र पण रागनी रुचि रहे तेना परिणाम चैतन्य तरफ
वळी शके नहि, ने मोक्षमार्गने ते साधी शके नहि.
रागनी रुचि छोडीने धर्मी जीव चैतन्यना प्रेममां एवो मग्न छे के वारंवार
तेनु ज स्वरूप विचारे छे, उपयोगने फरीफरी आत्मा तरफ वाळे छे, क््यारेक क््यारेक
निर्विकल्प अनुभव करे छे, एकाग्रताथी एने ध्यावे छे. ‘चेतनरूप अनूप अमूरत....
सिद्धसमान सदा पद मेरो’–एम सिद्ध जेवा निजस्वरूपनो अनुभव करे छे; एनी
वात सांभळतां पण ते उत्साहित थाय छे, एनां गुणगान ने महिमा करतां ते
उल्लसित थाय छे. अहा, मारी चैतन्यवस्तु अचिंत्य महिमावंत, एनी पासे रागादि
परभावो तो अवस्तु छे,–ए अवस्तुनी रुचि कोण करे? एनो महिमा, एनां
गुणगान कोण करे ? सम्यग्द्रष्टि तो पोताना शुद्धस्वरूपनी नवधाभक्ति करे छे,
अथवा मुनिराजनी नवधाभक्ति करे तेमां पण शुद्धस्वरूपनी सन्मुखता छे. आ
वचनीका लखनार पं. बनारसीदासजीए समयसारनाटकमां, ज्ञानी केवी
नवधाभक्ति करे छे तेनुं सुन्दर वर्णन कर्युं छे–
आध्यात्मिक नवधाभक्ति
श्रवण कीरतन चिंतवन सेवन वंदन ध्यान।
लघुता समता एकता नौधा भक्ति प्रबान।।८।।
(मोक्षद्वार)
१. श्रवण: उपादेयरूप पोताना शुद्धस्वरूपना गुणोनुं प्रेमपूर्वक श्रवण करवुं ते
एक प्रकारनी भक्ति छे. जेना प्रत्ये जेने भक्ति होय तेने तेनां गुणगान सांभळतां
प्रमोद आवे छे; धर्मीने निजस्वरूपना गुणगान सांभळतां प्रमोद आवे छे.
२. कीर्तन: चैतन्यना गुणोनुं, तेनी शक्तिओनुं व्याख्यान करवुं, महिमा
करवो, ते तेनी भक्ति छे.
३. चिंतन: जेना प्रत्ये भक्ति होय तेना गुणोनो वारंवार विचार करे छे;
धर्मीजीव निजस्वरूपना गुणोनुं वारंवार चिंतन करे छे. ए पण स्वरूपनी भक्तिनो
प्रकार छे.
४. सेवन अंदरमां निजगुणोनुं वारंवार अध्ययन करवुं.
प. वंदन: महापुरुषोना चरणोमां जेम भक्तिथी वंदन करे छे तेम
चैतन्यस्वरूपमां परम भक्तिपूर्वक वंदवुं–नमवुं–तेमां लीन थईने परिणमवुं, ते
सम्यग्द्रष्टिनी आत्मभक्ति छे.
६. ध्यान: जेना प्रत्ये परम भक्ति होय तेनुं वारंवार ध्यान थया करे छे;
तेना गुणोनो विचार, उपकारोनो विचार वारंवार आवे छे, तेम धर्मी जीव अत्यंत
प्रीतिपूर्वक वारंवार निजस्वरूपना ध्यानमां प्रवर्ते छे. कोई कहे के अमने
निजस्वरूप प्रत्ये प्रीति ने