: १८ : आत्मधर्म : कारतक :
अज्ञानी ओळखतो नथी, ते तो एकली देहक्रियाने ज देखे छे. शुद्धस्वरूपनी
सन्मुखताथी जेटली शुद्धपरिणति थई तेटलो तप छे–एम धर्मी जाणे. आवो तप
अज्ञानीने होतो नथी, तेमज तेने ते ओळखतो पण नथी. तप वगेरेनो शुभराग
ते बाह्य निमित्त छे, अने देहनी क्रिया तो आत्माथी तद्न जुदी चीज छे, तेने बदले
अज्ञानी तो एने ज मूळवस्तु मानी बेसे छे, ने साची मूळवस्तुने भूली जाय छे.
शुभराग अने साथे भूमिकायोग्य शुद्धपरिणति ते ज्ञानीनो आचार छे, तेनुं नाम
मिश्रव्यवहार छे. मिश्र एटले कंईक अशुद्धता ने कंईक शुद्धता; तेमां जे अशुद्धअंश
छे ते धर्मीने आस्रव–बंधनुं कारण छे ने जे शुद्धअंश छे ते संवर–निर्जरानुं कारण
छे. –आ रीते आस्रव–बंध ने संवर–निर्जरा ए चारे भावो धर्मीने एक साथे वर्ते
छे. अज्ञानीने मिश्रभाव नथी, एने तो एकली अशुद्धता छे; सर्वज्ञने मिश्रभाव
नथी, एम ने एकली शुद्धता छे. मिश्रभाव साधकदशामां छे. तेमां
शुद्धपरिणतिअनुसार ते मोक्षमार्गने साधे छे–एम जाणवुं.
अहा, धर्मात्मानी आ अध्यात्मकळा....अलौकिक छे. आवी अध्यात्मकळा
शीखवा जेवी छे, ने एनो प्रचार करवा जेवो छे. खरूं सुख आ अध्यात्मकळाथी ज
प्राप्त थाय छे. अध्यात्मविद्या सिवाय बीजी लौकिकविद्याओनी किंमत धर्ममां कांई
नथी. सा विद्या या विमुक्तये–आत्माने मोक्षनुं कारण न थाय एवी विद्याने विद्या
कोण कहे? –विद्याहीन होय ते कहे!
जेणे अध्यात्मविद्या जाणी छे एवा ज्ञानीने मिश्रव्यवहार कह्यो, एटले
शुद्धता ने अशुद्धता बंने एकसाथे तेने छे, पण तेथी कांई ते शुद्धता ने अशुद्धता
एकबीजामां भळी जता नथी. जे शुद्धता छे ते कांई अशुद्धतारूप थई जती नथी, ने
जे अशुद्धता (रागादि) छे ते कांई शुद्धतारूप थई जती नथी. एक साथे होवा छतां
बंनेनी जुदी जुदी धारा छे. आ रीते ‘मिश्र’ ए बंनेनुं जुदापणुं बतावे छे,
एकपणुं नहि. तेमांथी जे शुद्धता छे तेना वडे धर्मी जीव मोक्षमार्गने साधे छे, ने जे
अशुद्धता छे तेने ते हेय समजे छे.
मंगल भावना
आ आत्मा मोहबंधनमां क््यांय न बंधाय....ने
चैतन्यप्रेमना बळथी मोहबंधननी बेडी तोडीने मोक्षपंथे दोडे
एवी मंगल भावना अने मंगलप्रार्थना पूर्वक देव–गुरुनी
मंगलछायामां नूतनवर्षनो मंगलप्रारंभ थाय छे.....