Atmadharma magazine - Ank 265
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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सत्नुं माप संख्या उपरथी नथी, ने सत्ने दुनियानी प्रशंसानी जरूर नथी.
अहा, सर्वज्ञदेवे कहेलो आत्मा जेनी प्रतीतिमां आवी गयो छे, अनुभवमां
सम्यग्द्रष्टिनी अंतरनी दशा वर्णवतां श्री दौलतरामजी कवि कहे छे के–
चिन्मूरत द्रगधारिकी मोहे रीति लगत है अटापटी;
बाहर नारकीकृत दुःख भोगे अंतर सुखरस गटागटी.
नारकीने बहारमां क््यां कांई सगवड छे? छतां ते सम्यग्दर्शन पामे छे, नानुं
देडकुं पण सम्यग्दर्शन पामे छे; ते प्रशंसनीय छे. अढीद्वीपमां समवसरण वगेरेमां
घणा तिर्यंचो सम्यग्द्रष्टि छे, ते उपरांत अढीद्वीप बहार तो असंख्याता तिर्यंचो
आत्माना ज्ञानसहित चोथे–पांचमे गुणस्थाने बिराजी रह्या छे, सिंह–वाघ ने सर्प
जेवा प्राणीओ पण सम्यग्दर्शन पामे छे, ते जीवो प्रशंसनीय छे. अंदरथी चैतन्यनुं
पाताळ फोडीने सम्यग्दर्शन प्रगट्युं छे–एना महिमानी शी वात? बहारना
संयोगथी जुए एने ए महिमा न देखाय, पण अंदर आत्मानी दशा शुं छे तेने
ओळखे तो तेना महिमानी खबर पडे. सम्यग्द्रष्टिए आत्माना आनंदने देख्यो छे,
एनो स्वाद चाख्यो छे, भेदज्ञान थयुं छे, ते खरेखर आदरणीय छे, पूज्य छे. मोटा
राजा–महाराजाने प्रशंसनीय न कह्या, स्वर्गना देवने प्रशंसनीय न कह्या, पण
सम्यग्द्रष्टिने प्रशंसनीय कह्या, पछी भले ते तिर्यंच पर्यायमां हो, नरकमां हो,
देवमां हो के मनुष्यमां हो, ते सर्वत्र प्रशंसनीय छे. जे सम्यग्दर्शनधर्मने साधी रह्या
छे ते ज धर्ममां अनुमोदनीय छे. सम्यग्दर्शन वगर बाह्य त्याग–व्रत के शास्त्रनुं
जाणपणुं वगेरे घणुं होय तोपण, आचार्यदेव कहे छे के ए कांई