Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 73

background image
: १० : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
धर्मना आराधक सम्यग्द्रष्टिनी प्रशंसा
[लेखांक बीजो: गतांकथी चालु]
सम्यक्त्वनी अत्यंत वीरलता बतावीने गमेतेवी परिस्थिति
वच्चे पण द्रढ आराधनानो उपदेश आपतां आ प्रवचनमां गुरुदेव कहे
छे के सम्यग्द्रष्टि लाखोकरोडो जीवोमां एकलो होय तोपण ते शोभे छे
ने एकलो–एकलो निःशंकपणे ते मोक्षमार्गमां चाल्यो जाय छे. जगतमां
कोईनो साथ न होय तो पण सर्वज्ञ भगवान एना साथीदार छे. माटे
हे जीव! तुं द्रढपणे आवा सम्यक्त्वनी आराधना कर.
रोगादि गमे तेवी प्रतिकूळतामां य ‘हुं स्वयंसिद्ध, चिदानंदस्वभावी परमात्मा
छुं’ एवी निजात्मानी अंतर प्रतीत धर्मीने खसती नथी. आत्माना स्वभावनी आवी
प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे, ने तेमां निमित्तरूप सर्वज्ञदेवनी वाणी छे; तेमां जेने संदेह छे
ते जीवने धर्म होतो नथी. सम्यग्द्रष्टि जिनवचनमां अने जिनवचने दर्शावेला
आत्मस्वभावमां प्रतीति करीने सम्यग्दर्शनमां निश्चल स्थिति करे छे. आवा जीवो
जगतमां त्रणे काळे विरला ज होय छे. भले थोडा होय तो पण ते प्रशंसनीय छे.
जगतना सामान्य जीवो भले तेने न ओळखे पण सर्वज्ञ भगवंतो संतो ने ज्ञानीओथी
ते प्रशंसाने पात्र छे, भगवाने अने संतोए तेने मोक्षमार्गमां स्वीकार्या छे. जगतमां
आथी मोटी बीजी कई प्रशंसा छे? बहारमां गमे तेवा प्रतिकूळ प्रसंग होय तो पण
सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा पवित्र दर्शनथी चलायमान थता नथी.
प्रश्न: –चारेकोर प्रतिकूळताथी घेरायेलो होय एवा जीवने सम्यग्दर्शननी फूरसद
क््यारे मळे?
उत्तर: –भाई! सम्यग्दर्शनमां क््यां कोई संयोगनी जरूर छे? प्रतिकूळ संयोगो
कांई दुःखनुं कारण नथी ने अनुकूळ संयोगो कांई सम्यक्त्वनुं कारण नथी.
आत्मस्वरूपमां भ्रांति ज दुःखनुं कारण छे ने आत्मस्वरूपनी निर्भ्रान्त प्रतीत ते
सम्यग्दर्शन छे, ते सुखनुं कारण छे, आ सम्यग्दर्शन कोई संयोगोना आश्रये नथी पण
पोताना सहज स्वभावना ज आश्रये छे. अरे, नरकमां तो केटली