Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ११ :
असह्य प्रतिकूळता छे! त्यां खावानुं अन्न के पीवानुं पाणी मळतुं नथी, ठंडी–गरमीनो
पार नथी, शरीरमां पीडानो पार नथी, कांई ज सगवडता नथी, छतां त्यां पण
(सातमी नरकमां पण) असंख्याता जीवो सम्यग्दर्शन पामेला छे;–ते कोना आधारे
पाम्या? संयोगोनुं लक्ष छोडी परिणतिने अंतरमां वाळीने पोताना आत्माना आश्रये
सम्यग्दर्शन पाम्या. नरकमां पण आवुं सम्यग्दर्शन थाय छे तो अहीं केम न थाय? अहीं
कांई नरक जेटली तो प्रतिकूळता नथी ने? पोते पोतानी रुचि पलटावीने आत्मानी
द्रष्टि करे तो संयोग कांई नडता नथी. पोते रुचि न पलटावे ने संयोगनो वांक काढे ए
तो मिथ्याबुद्धि छे.
अहीं, पैसा होय के पुण्य होय तो जीव प्रशंसनीय छे एम न कह्युं, पण जेनी
पासे धर्म छे ते ज जीव प्रशंसनीय छे एम कह्युं. पैसा के पुण्य ए क््यां आत्माना
स्वभावनी चीज छे? जे पोताना स्वभावनी चीज न होय तेनाथी आत्मानी शोभा
केम होय? हे जीव! तारी शोभा तो तारा निर्मळ भावोथी छे, बीजाथी तारी शोभा
नथी, अंतर स्वभावनी प्रतीत करीने तेमां तुं ठर एटली ज तारी मुक्तिनी वार छे.
अनुकूळ–प्रतिकूळ संयोग उपरथी कांई धर्म–अधर्मनुं माप नथी; धर्मी होय तेने
प्रतिकूळता आवे ज नहि–एवुं नथी; हा, एटलुं खरूं के प्रतिकूळतामांय धर्मी जीव
पोताना धर्मने छोडे नहि. कोई कहे के धर्मीने पुत्र वगेरे मरे ज नहि, धर्मीने रोग थाय
ज नहि, धर्मीने वहाण डूबे ज नहि, तो एनी वात साची नथी, एने धर्मना स्वरूपनी
खबर नथी. धर्मीनेय पूर्व पापनो उदय होय तो ए बधुं बने. कोईवार धर्मीना पुत्रादिनुं
आयुष्य ओछुं पण होय ने अज्ञानीना पुत्रादिनुं आयुष्य विशेष होय, पण तेथी शुं?
ए तो पूर्वना बांधेला शुभ–अशुभ कर्मना चाळा छे, एनी साथे धर्म–अधर्मनो संबंध
नथी. धर्मीनी शोभा तो पोताना आत्माथी ज छे, कांई संयोगथी एनी शोभा नथी.
मिथ्याद्रष्टिने संयोग कोईवार अनुकूळ होय, पण अरे! मिथ्यामार्गनुं सेवन ए
महादुःखनुं कारण छे–एनी प्रशंसा शी? कुद्रष्टिनी–कुमार्गनी प्रशंसा धर्मी जीव करे नहि.
सम्यक् प्रतीति वडे निजस्वभावथी जे जीव भरेलो छे ने पापना उदयना कारणे
संयोगथी खाली (अर्थात् अनुकूळ संयोग तेने नथी) तो पण तेनुं जीवन प्रशंसनीय
छे–सुखी छे. हुं मारा सुखस्वभावथी भरेलो छुं ने संयोगथी खाली छुं–एवी अनुभूति
धर्मीने सदाय वर्ते छे, ते सत्यनो सत्कार करनार छे, आनंददायक अमृत मार्गे चालनार
छे. अने स्वभावथी जे खाली छे अर्थात् ज्ञानानंदथी भरेला निजस्वभावने जे देखतो
नथी ने विपरीत द्रष्टिथी रागने ज धर्म माने