: १२ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
छे, संयोगथी ने पुण्यथी पोताने भरेलो माने छे, ते जीव बहारना संयोगथी सुखी जेवो देखातो होय
तो पण ते खरेखर महा दुःखी छे, संसारना मार्गे छे. बहारनो संयोग ए कांई वर्तमान धर्मनुं फळ
नथी. धर्मी जीव बहारथी भले खाली होय पण अंतरमां भरेला स्वभावना भरोसे ते केवळज्ञानी
थवानो. अने जे जीव संयोगथी भरेलो पण स्वभावथी खाली छे–सम्यग्दर्शनथी रहित छे ते ऊंधी
द्रष्टिथी संसारमां रखडवानो; आत्माने स्वभावथी भरेलो ने संयोगथी खाली मान्यो तो तेना फळमां
संयोगरहित एवा सिद्धपदने पामशे. संयोगथी आत्मानी मोटाई नथी. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो?
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
वधवापणुं संसारनुं नरदेहने हारी जवो,
एनो विचार नहीं अहोहो! एक पळ तमने हवो.
अरे, संयोगथी आत्मानी मोटाई मानवी ए तो स्वभावने भूलीने आ मोंघो मनुष्य
भव हारी जवा जेवुं छे. माटे हे भाई! आवो मनुष्य अवतार पामीने आत्मानुं भान केम
थाय ने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थईने भवभ्रमण केम मटे–एनो प्रयत्न कर.
जगतमां असत् माननारा घणा होय, तेथी शुं? अने सत्यधर्म समजनारा थोडा ज
होय –तेथी शुं? तेथी कांई असत्नी किंमत वधी जाय ने सत्नी किंमत घटी जाय एम नथी.
कीडीनां घणां टोळां होय ने माणस थोडा होय–तेथी कांई कीडीनी किंमत वधी न जाय.
जगतमां सिद्धो सदाय थोडा ने संसारी जीवो झाझा, तेथी सिद्ध करतां संसारीनी किंमत शुं
वधी गई? जेम अफीणनो भले मोटो ढगलो होय तोपण ते कडवो छे, ने साकरनी नानी
कटकी होय तोपण ते मीठी छे, तेम मिथ्यामार्गमां करोडो जीवो होय तोपण ते मार्ग झेर जेवो
छे, ने सम्यक्मार्गमां भले थोडा जीवो होय तोपण ते मार्ग अमृत जेवो छे. जेम, थाळी भले
सोनानी होय पण जो तेमां झेर भर्युं होय तो ते शोभतुं नथी ने खानारने मारे छे, तेम भले
पुण्यना ठाठ वच्चे पड्यो होय पण जे जीव मिथ्यात्वरूपी झेर सहित छे, ते शोभतो नथी, ते
संसारमां भवभ्रमणथी मरे छे. पण, जेम थाळी भले लोढानी होय पण जो तेमां अमृत भर्युं
होय तो ते शोभे छे ने खानारने तृप्ति आपे छे, तेम भले प्रतिकूळताना गंज वच्चे पड्यो
होय पण जे जीव सम्यग्दर्शनरूपी अमृतथी भरेलो छे ते शोभे छे, ते आत्माना परम सुखने
अनुभवे छे ने अमृत एवा सिद्धपदने पामे छे.
परमात्मप्रकाश पृ: २०० मां कह्युं छे के–
“वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन हि संयुतः।
न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते।।”
सम्यक्त्व सहित जीवनो तो नरकवास पण भलो छे ने सम्यक्त्वरहित जीवनो
देवलोकमां निवास पण शोभतो नथी, सम्यग्दर्शन वगर देवलोकना देवो पण दुःखी ज छे.
शास्त्रो तो तेने पापी कहे छे.
‘सम्यक्त्वरहित जीवाः पुण्यसहिता अपि पापजीवा भण्यन्ते’ ।
आम जाणीने श्रावके सौथी पहेलांं सम्यक्त्वनी आराधना करवी.