Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
[७४] प्रश्न:– ‘जिनपद निजपद एकता’ एटले शुं?
उत्तर:– ‘जिनपद निजपद एकता’ एम कहीने आत्मानो परमार्थ स्वभाव
बताव्यो छे. परमार्थे अरिहंतना स्वभावमां ने मारा आत्मामां कोई
फेर नथी–एम जिन जेवा निजस्वभावने जाणे ते ‘जिन’ थाय.
जीवने सम्यग्दर्शन थयुं (अथवा सम्यग्दर्शन थवा माटेना
अपूर्वकरणमां प्रवेश्यो) त्यां तेने ‘जिन’ कह्यो छे. सर्वज्ञ जेवा
आत्मस्वभावनो अनुभव कराववो ते सर्व शास्त्रोनो सार छे.
श्रीमद्राजचंद्रनुं पूरुं पद आ प्रमाणे छे–
‘जिनपद निजपद एकता भेदभाव नहि कांई,
लक्ष थवाने तेहनो कह्यां शास्त्र सुखदायी.’
[७प] प्रश्न:– आत्माने ‘परमात्मा’ केम कह्यो छे?
उत्तर:– सर्वज्ञतारूप परम उत्कृष्ट तेनो स्वभाव छे माटे ते परमात्मा छे.
[७६] प्रश्न:– परमात्मा होवा छतां ते संसारमां केम भटके छे?
उत्तर:– पोताना परमात्मस्वभावने भूल्यो छे माटे.
[७७] प्रश्न:– परम ब्रह्मना जिज्ञासुने अर्थात् मोक्षना अभिलाषीने कांई कार्य
करवानुं रहे छे?
उत्तर:– हा, पोताना स्वभावनुं सम्यक्भान अने तेमां लीनतां, अर्थात्
सम्यग्दर्शन– ज्ञान–चारित्ररूप कार्य, ए दरेक जिज्ञासुनुं कर्तव्य छे.
नियमसारमां कुंदकुंदस्वामीए कह्युं छे के मोक्षने माटे शुद्धरत्नत्रय ते
नियमथी कर्तव्य छे. शुद्धरत्नत्रय ते ज्ञानभावमय छे, ते ज धर्मीनुं
कार्य छे. अने आवा पोताना ज्ञानभावरूप कार्य सिवाय अन्य
समस्त भावोमां तेने अकर्तापणुं छे. –आ परमब्रह्मनी एटले के
केवळज्ञाननी प्राप्तिनो उपाय छे.