: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ३३ :
चैतन्यना भोगवटारूप ज्ञानचेतना
[शुद्धचेतनावडे शुद्धचैतन्यनो स्वाद वेदे ते समकिती]
[कलशटीका–प्रवचनो: राजकोट]
जीवे पोताना चैतन्यस्वभावनी महत्ता जाणी नथी ने परप्रत्ये साची उदासीनता
कदी करी नथी, तेथी चोराशीना अवतारमां रखडतो–रझडतो ज्यां त्यां परिभ्रमण करे
छे. जेम वंटोळियामां तणखलुं ऊडे तेम अज्ञानरूपी वंटोळियाथी आत्मा तणखलांनी
जेम चार गतिमां ऊडे छे. भाई, तारो चिदानंदआत्मा अनंतगुणनुं धाम छे, तेने
भूलीने जड देहनी सुंदरतामां तुं मूर्छाणो–ए मोटो भ्रम छे. शरीरनी सुंदरताथी जाणे हुं
सुंदर, शरीरनी शोभाथी जाणे मारी शोभा, अरे, पुण्य वडे मारी शोभा–एम मानीने तुं
तारी चैतन्य शोभाने भूली रह्यो छे! जेनो महिमा करे तेना तरफथी पाछो केम वळे?
ने अंतरमां चैतन्य तरफ क््यारे आवे?
तारो आत्मा तो आनंदनो मावो छे. मांसाहारना तीव्र पापमां डुबेला जीवो कहे
छे के माछली ए दरियानो मावो छे; अरे भाई! एने एना देहनी ममताथी केटलो
त्रास थाय छे ते तो जरा जो! निर्दोष आनंदनो मावो तो तारा चैतन्यसमुद्रमां छे; जेना
स्वादमां कोई आकुळता नथी, जेनामां विकल्पनो प्रवेश नथी. आवा ज्ञानमावाना
रसनो रसिलो एकवार था. तारा आत्माने आ संसारमां बीजुं कांई शरण नथी. तीव्र
पापभावथी जेओ जीवोनी हिंसा करी रह्या छे, के माछली–ईंडा वगेरे पंचेन्द्रियजीवोनुं
भक्षण करे छे तेओ तो नरकमां जवा माटे दोट मुकी रह्या छे. नरकमां कोई दुःखोनो पार
नथी, ओछामां ओछा दश हजारथी मांडीने असंख्य वर्षो सुधी भयंकर दुःखो जीव
नरकमां भोगवे छे. आवा दुःखोथी छूटवा हे जीव! तुं निर्दोष ज्ञानस्वभावनो रसियो
थईने तेनो स्वाद ले.
आत्मानुं लक्षण चेतना छे. ज्ञानमां ज्ञाननुं वेदन थाय एनुं नाम ‘ज्ञानचेतना’
छे, ते ज मोक्षना कारणरूप भाव छे; आ ज्ञानचेतना ते शुद्धचेतना छे; ने शुभाशुभ
विकल्प करवामां के भोगववामां रोकायेलुं ज्ञान ते अशुद्धचेतना छे, तेने कर्मचेतना
अथवा कर्मफलचेतना कहे छे, ते संसारनुं कारण छे. ज्ञानचेतनामां चैतन्यनी शांति ने
अतीन्द्रिय सुख छे; ने कर्मचेतना तथा कर्मफळचेतना ए बंने अशुद्धचेतनामां