: ३४ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
दुःख छे, आकुळता छे. परद्रव्य–सन्मुखनी जेटली वृत्ति ऊठे ते बधी अशुद्धचेतना छे.
शुद्धचेतना तो स्वद्रव्य–सन्मुख थईने शुद्धआत्माने संचेते छे ने तेना आनंदने अनुभवे
छे. आवी शुद्धचेतना वगर सम्यग्दर्शन प्रगटे नहि.
अनुकूळ संयोगमां हर्ष करीने, तथा प्रतिकूळ प्रसंगमां खेद करीने तेना वेदनमां
अटकी जाय ते अशुद्ध कर्मफळचेतना छे. चैतन्यतत्त्व रागथी जुदुं छे–एना वेदन वगर
साचुं वैरागीपणुं आवे नहि. वैरागनी रीत पण भगवानना मार्गमां जुदी जातनी छे.
चैतन्यस्वरूपनी सन्मुख थईने तेना वेदन वगर पर प्रत्ये साचो वैराग्य आवे नहि.
रागना वेदनमां जे अटके तेने वैरागी कोण कहे? धर्मीनो वैराग्य तो एवो छे के जेमां
स्वभावनो भोगवटो होय, रागनो भोगवटो जेमां छूटी गयो होय. चैतन्यनो उत्साह
चूकीने रागनो उत्साह धर्मीने आवे नहि. रागथी पार चैतन्यनो स्वाद एणे चाख्यो छे,
एटले जगतना बधा स्वाद तेने फिक्का–नीरस लागे छे.
* परना स्वादने तो कोई जीव भोगवतो नथी.
* अज्ञानी आत्माना शुद्ध स्वादने भूलीने विकारना अशुद्ध स्वादने ज भोगवे छे;
परने भोगववानुं भ्रमथी माने छे.
* ज्ञानी परथी भिन्न ने रागथी पार चैतन्यना परम आनंदस्वादने अनुभवे छे.
समकितीने वस्तुनो अनुभव केवो छे?–
वस्तु विचारत ध्यावतें मन पामे विश्राम;
रसस्वादत सुख ऊपजे, अनुभव याको नाम.
आवो अनुभव गृहस्थ–समकितीनेय होय छे, नरकमां पण समकितीने आवो
अनुभव होय छे. आवो अनुभव ते मूळमार्ग छे. पण आवा मूळमार्गनी प्राप्ति माटे
अंतरमां घणी पात्रता, घणो सत्समागम जोईए. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
ते जिज्ञासु जीवने, थाये सद्गुरुबोध,
तो पामे समकित ते वर्ते अंतर शोध.
सत्समागमे साचा मार्गनुं श्रवण–मनन करीने, पोते अंतरशोधमां वर्ते तो
आवो अनुभव थाय ने ते जीव समकित पामे.