Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ३५ :
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा:
लेख नं. ३३ अंक २१८ थी चालु
परम शांतिदातारी अध्यात्मभावना
भगवानश्री पूज्यपाद स्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर
पू. गुरुदेवनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार
‘आत्मधर्म’ ना घणा जिज्ञासु वांचको तरफथी सहेला
लेखोनी मागणी थतां, अंक (१प८) श्री आ लेखमाळा शरू करवामां
आवी छे. आ प्रवचनो अध्यात्मरसथी भरपूर होवा छतां सरळ
अने सहेलाईथी समजी शकाय तेवां छे. आथी सौने आ लेखमाळा
विशेष पसंद पडी छे. वच्चे बंध रहेली आ लेखमाळा आ अंकथी
चालु थाय छे.
आ ‘समाधिशतक’ ना रचनार श्री पूज्यपादस्वामी लगभग
१४०० वर्ष पहेलांं थई गयेला महान दिगंबर संत छे; तेमनुं बीजुं
नाम ‘देवनंदी’ हतुं. तेओ विदेहक्षेत्रे सीमंधर भगवान पासे गया
‘सर्वार्थसिद्धि’ जेवी महान टीका, तथा जैनेन्द्र व्याकरण वगेरे महान
ग्रंथो रच्या छे. तेमनी अगाधबुद्धिने लीधे योगीओए तेमने
‘जिनेन्द्रबुद्धि’ कह्या छे. –आवा महान आचार्यना रचेला
समाधिशतक उपरनां आ प्रवचनो छे. (दिल्हीमां, राष्ट्रपति भवनना
धार्मिक विभागमां आ शास्त्रनी केटलीक गाथा दीवाल पर लखेली
छे.) –ब्र. ह. जैन
[वीर सं. २४८२ अषाड वद बीज: समाधिशतक गा. ६१]
चैतन्यस्वरूप आत्मामां ज प्रीति–अनुराग करवा योग्य छे, ने पर द्रव्यो प्रत्ये
उपेक्षा करवा योग्य छे; पण जेने आवुं भान नथी ते जीव मूढबुद्धिथी पर द्रव्यमां राग–द्वेष