Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 39 of 73

background image
: ३६ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
करे छे. प्रीति करवा योग्य जे चैतन्यस्वरूप तेने न जाण्युं एटले देहादिमां प्रीति वर्ते छे,
अने देहादिनी उपेक्षा करवाने बदले तेने ऊंडे ऊंडे द्वेषबुद्धि थई जाय छे. चैतन्यना
आनंदरूप समाधि नथी त्यां ऊडे ऊंडे असमाधिनो भाव वर्ते छे एटले ‘शरीरने सूकवी
नांखुं के शरीरनो निग्रह करुं’ एवी द्वेषबुद्धि तेने थाय छे; एने त्यागमां शांति नथी
पण द्वेष छे. आ जड शरीर तो मारा ज्ञानानंदस्वरूपथी अत्यंत भिन्न छे एम जे नथी
जाणतो ते अज्ञानीने शरीरमां ज अनुग्रह अने निग्रहनी बुद्धि थाय छे, ते वात करे छे–
न जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः।
निग्रहानिग्रहधियं तथाप्यत्रैव कुर्वते।।
६१।।
आ शरीर तो जड छे, ते कांई सुख–दुःखने जाणतुं नथी. तेमज ते शरीरमां कांई
सुख–दुःख थतुं नथी छतां मूढ जीव ते शरीरमां ज हेय–उपादेयबुद्धि करीने तेमां द्वेष अने
प्रीति करे छे. मिथ्याद्रष्टिजीव घरबार छोडीने जंगलमां जईने रहे, ने शुभभावथी
स्वर्गमां जाय, त्यारे पण चैतन्यनी शांति वगर शरीर उपर द्वेषनी बुद्धिथी ज तेनो
त्याग छे. ‘शरीर द्वारा धर्मनुं साधन करवा माटे तेने आहारादि आपुं, अथवा
उपवासादि वडे शरीरनो निग्रह करुं’ –एवी जेनी बुद्धि छे तेने अनंतानुबंधी राग–द्वेष
पड्या ज छे, चैतन्यना अमृतनुं वेदन तेने नथी एटले तेने समाधि नथी पण
असमाधि ज छे. शरीरने ज सुखनुं साधन मान्युं त्यां तेने पोषवानी रागबुद्धि छे, अने
शरीरने दुःखनुं साधन मान्युं त्यां तेना उपर द्वेषबुद्धि छे, एटले ते शरीर प्रत्येनी
चिंताथी निरंतर असमाधि ज वेदे छे. पण हुं तो देहथी भिन्न ज्ञानदर्शनस्वरूप छुं, देहमां
मारुं सुखदुःख छे ज नहि–एम ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतो नथी, बधाय परद्रव्योथी
आत्माने भिन्न जाणीने सर्व परद्रव्यथी उपेक्षित थईने ज्ञानानंदस्वरूपमां प्रीति करवी ते
ज समाधिनो उपाय छे. धर्मीने चैतन्यस्वरूपमां ज प्रीति छे, पोताना चैतन्यस्वरूप
सिवाय देहादि प्रत्ये तेने उपेक्षा ज छे; ज्ञानस्वरूप आत्मा शांतिनो ने आनंदनो सागर
छे–तेमां वळतां देहादि प्रत्ये सहेजे उपेक्षा वर्ते छे; धर्मीने आत्मभावे पर प्रत्ये उपेक्षा
वर्ते छे. अज्ञानीने आत्मभावनी तो खबर नथी ने परने छोडवा जाय छे–तेथी तेमां
तेने द्वेषबुद्धि ज पडी छे. ज्यां आत्मानी शांति नथी त्यां कोई ने कोई प्रकारे बळतरा
(संयोगनी अभिलाषा) पडी ज छे. चिदानंदस्वरूप आत्मद्रव्यमां परिणतिनी एकाग्रता
वगर देहादि प्रत्ये साची उपेक्षा थती नथी. चैतन्यना आनंदमां एकाग्र थतां राग–द्वेष
थता ज नथी. त्यां धर्मीने देहादि प्रत्ये ईष्ट–अनीष्टबुद्धि थती नथी, एटले अनाकुळ
शांतिरूप समाधि ज रहे छे.
चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंद पासे धर्मात्माने जगतना समस्त बाह्य विषयोनुं