: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ३७ :
कौतूक छूटी गयुं छे, बहारमां क््यांय सुख स्वप्नेय भासतुं नथी. अमृतनुं आखुं झाड,
अमृतनी आखी नाळियेरी, अथवा आनंदनुं कल्पवृक्ष पोतामां ज साक्षात् देख्युं छे ने
एनो स्वाद चाख्यो छे त्यां रागनी के रागना फळनी मीठास केम लागे? अज्ञानी
रागमां ने संयोगमां क््यांक ने क््यांक मोहायो छे; जो क््यांक न अटक्यो होय तो
चैतन्यना वीतरागी आनंदनुं वेदन केम न थाय? ज्ञानी तो स्वतत्त्वमां ज संतुष्ठ छे.
तेने ज साचो त्याग ने साची समाधि थाय छे. जुओ, आवा आत्मतत्त्वने जाणीने,
अंतर्मुख तेनी भावना करवी ते ज परम शांतिनी दातार छे. ए सिवाय बीजे क््यांयथी
प्रत्ये साची उदासीनता के साचो वैराग्य थाय नहि, एटले तेनो त्याग पण साचो होय
नहि, ने तेने आत्मानी शान्ति प्रगटे नहि.
ज्ञानी धर्मात्मा गृहस्थपणामांय होय, शरीरना संस्कार करता होय एवुं देखाय,
पण खरेखर एणे देहथी पोताने अत्यंत भिन्न जाण्यो छे, देह हुं छुं ज नहि हुं तो
चैतन्य छुं, जेम थांभलो आत्माथी जुदो छे तेम देह आत्माथी जुदो छे–एवी स्पष्ट
भिन्नता धर्मात्माए जाणी छे; देहथी ते पोताने जरापण सुख–दुःख मानता नथी, ने देह
पोते तो अचेतन छे, तेने तो सुख–दुःखनी कांई खबर नथी. आ रीते शरीर पोताने
सुख–दुःखनुं कारण नथी; तेथी शरीर पर उपकार करवानी के शरीरने कलेश देवानी बुद्धि
ज्ञानीने नथी, ज्ञानीने तो तेनाथी उपेक्षाबुद्धि छे; जे मारुं छे ज नहि, तेनो अनुग्रह
शो? ने निग्रह शो? अनुग्रह एटले शरीरनी सेवा करवी, तेने साचववुं, शरीर सरखुं
हशे तो धर्म थशे–एवा भावथी तेने संभाळवुं; अने निग्रह एटले शरीरनुं दमन करवुं,
देहदमन करशुं तो धर्म थशे–एवी बुद्धिथी शरीरना कष्ट सहन करवा; –ए प्रकारे देह
उपर अनुग्रह ने निग्रहनी बुद्धि कोण करे छे? –के अज्ञानी ज एवी बुद्धि करे छे, केमके
तेने शरीरमां एकताबुद्धि छे; ज्ञानीए तो आत्माने देहथी सर्वथा भिन्न जाणीने देह प्रत्ये
उपेक्षा बुद्धि करी छे, शरीरना लाभ–नुकशानथी आत्माना लाभ–नुकशाननी बुद्धि
धर्मीने छे ज नहि. शरीरना लाभ–नुकशानथी पोताने लाभ–नुकशान माने एने शरीर
प्रत्ये साचो वैराग्य होय ज नहि; एटले एना त्यागने पण द्वेषगर्भित त्याग कह्यो छे.
ज्ञानीने, ज्ञातास्वभावी स्वतत्त्व तरफ वळतां आखा जगत प्रत्ये ने शरीर प्रत्ये साची
उपेक्षाबुद्धि थई गई छे, ज्यां सुधी स्व–पर तत्त्वनुं भेदज्ञान नथी त्यां सुधी ज संसार
छे, ने भेदज्ञान थतां संसारनी निवृत्ति थाय छे–एम हवेनी गाथामां कहेशे.