Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ३९ :
शिष्यने केवी धगश होय ते बताव्युं छे. “काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग.”
जे स्वसंवेदन–पर्यायमां आत्मा जणाय ते स्वसंवेदन केम प्रगटे! एवी शिष्यनी
अभिलाषा छे. ‘एक क्षणमां आत्मा प्रगटे’ एम कहेवामां जिज्ञासानी तीव्रता बतावी
छे. जेमां शुद्ध आत्मानुं स्वसंवेदन थाय ते ज्ञान ज उपादेय छे, ने एवा ज्ञाननी प्रार्थना
शिष्ये करी.
हवे श्रीगुरु तेने एवा ज्ञाननुं स्वरूप प्रकाशे छे–हे शिष्य! हे वत्स! आत्मा
असंख्यप्रदेशी वस्तु छे, ते असंख्यप्रदेशे ज्ञान–सुख वगेरेथी भरेलो छे, आ देह प्रमाण
क्षेत्रमां असंख्यप्रदेशी आत्मा शुद्धबुद्धज्ञायकभावथी भरेलो बिराजे छे, ने
स्वसंवेदनज्ञानरूप पर्याय ते तेनो स्वकाळ छे.
स्वसंवेदनपर्याय ते तेनो स्वकाळ.
आत्मद्रव्य.
असंख्यप्रदेशी एनुं क्षेत्र.
शुद्धबुद्धज्ञायकपणुं ए तेनो भाव.
आवा स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप चतुष्टयथी आत्माने जाण. आवा आत्माने
वीतराग स्वसंवेदनथी तुं जाण. आ स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी बहार आत्मा नथी.
आत्माने जाणवा माटे आ तारा असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां जे स्वभाव भर्यो छे तेमां ज तुं
जो. ज्ञाननी ताकात लोकालोक सर्वने जाणवानी छे पण ज्ञाननुं क्षेत्र असंख्यप्रदेशी छे.
तारा स्वक्षेत्रमां ज तारुं आखुं स्वरूप समाई जाय छे, क््यांय बहार जोवापणुं रहेतुं
नथी. देह जेटला क्षेत्रमां आत्मा पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी परिपूर्ण छे. जेटलुं
आत्मानुं क्षेत्र छे तेटला क्षेत्रमां ज तेनो अनंतस्वभाव भर्यो छे. ज्ञान–आनंद–श्रद्धा–
अस्तित्व–प्रभुता वगेरे सर्वे गुणो असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां भरेला छे.
मति–श्रुत–अवधि–मनःपर्यय ने केवळज्ञान ए पांचे ज्ञानपर्यायोथी आत्मा
अभिन्न छे, ते ज्ञानथी आत्मा जुदो नथी. देहथी ने रागथी जुदो पण ज्ञानथी जुदो
नहि. –आम ज्ञानपर्यायने रागथी जुदी पाडीने ने आत्मा साथे एकमेक करीने आत्माने
जाण. असंख्य जोजन दूरनी वस्तुने ज्ञान जाणे तेथी कांई ज्ञान आत्माथी जुदुं पडीने
बहार दूर नथी जतुं. आत्मा साथे अभिन्न रहीने ज ज्ञान जाणे छे. घणुं ज्ञान खीले
तोपण ते आत्मामां ज समाय छे. अनंत अलोकने जाणनारुं ज्ञान पण आटला असंख्यप्रदेशी