Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
मर्यादित क्षेत्रमां ज समाय छे. ज्ञान आत्माथी जराय आघुं नथी जतुं. माटे ज्ञान
उपयोगने अंतरमां वाळीने आत्मा साथे तन्मय कर, एटले ए ज्ञानमां तत्क्षणे
आत्मानो अनुभव थशे. अनंत काळनुं ज्ञान असंख्यप्रदेशमां ज समाय छे, अनंत
क्षेत्रनुं ज्ञान असंख्यप्रदेशमां ज समाय छे, अनंता पदार्थोनुं ज्ञान असंख्यप्रदेशी एक
आत्मानी एक पर्यायमां समाय छे. तारा गुण ने तारी पर्याय तारा स्वक्षेत्रमां छे. तारी
सर्व पर्यायोमां तारो ज्ञानस्वभावी आत्मा तन्मय छे, जुदो नथी. एनी सामे नजर
कर, एमां ज्ञान उपयोगने जोड, तो एक क्षणमां तारो आत्मा तने जणाशे ने मोह तूटी
जशे. स्वसंवेदनज्ञानथी आवा आत्माने अनुभवमां ल्ये त्यारे आत्मा जाण्यो कहेवाय,
ते त्यारे ज मोक्षमार्ग शरू थाय. ज्ञान थोडुं हो के झाझुं–तेनुं क्षेत्र तो आत्माना असंख्य
प्रदेशमां ज छे. ज्ञान वधतां क्षेत्र पण वधी जाय एम नथी. लोकना (३४३ घनराजु
प्रमाण) जेटला असंख्यप्रदेश छे एटला ज असंख्यप्रदेश एकेक आत्माना छे; भले
संकोचाईने थोडा क्षेत्रमां देहप्रमाण रह्यो तोपण तेना प्रदेशोनी संख्या कांई घटी गई
नथी. प्रदेशो तो एटला ने एटला ज छे. अने असंख्यप्रदेशो अनंत गुणोथी भरपूर छे.
आवा आत्माने जे जीव स्वसंवेदनज्ञान वडे जाणे छे ते जीव ज्ञानथी अभिन्न छे, तेथी
ते आत्मा पोते पोताने ज्ञानथी अभिन्न अनुभवतो थको स्वयं ज्ञान छे. आवो
ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्यानमां उपादेय छे. आवा आत्मामां उपयोग जोडतां
निर्विकल्पध्यान थाय छे, ने एवा ध्यानमां ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान– चारित्र प्रगटे छे, शुभ
विकल्पमां एकाग्र थतां आत्मा जणाय नहि. शुभाशुभ विकल्प रहित थईने ज्ञानने
अंतर स्वरूपमां एकाग्र करतां आत्मा जणाय छे. जे आवुं स्वसंवेदनज्ञान छे ते ज
संवर–निर्जरा छे, ते ज मोक्षनो उपाय छे. बहारना विषयो तरफ ज्ञान ढळतुं तेमां
आस्रव–बंध हता, विषयोथी रहित थईने ज्ञानस्वभाव तरफ ढळ्‌युं ते ज्ञानमां संवर–
निर्जरा छे. स्वभाव तरफ वळीने शुद्धात्माने जाण्यो ने तेमां तन्मयपणे परिणम्यो ते
स्वसमय छे. परभावने जाणतां तेमां तन्मय थईने रह्यो ते परसमय छे. स्वसमयरूप
थईने तुं तारा आत्माने जाण. आ रीते एक क्षणमां आत्माने जाणवानी रीत श्रीगुरुए
शिष्यने बतावी.
रागादि भावो ते बाह्यतत्त्व छे, ते कांई आत्मानुं अंतरस्वरूप नथी. ज्ञान
आत्मानुं अंर्ततत्त्व छे, ज्ञानपरिणति आत्मामां अभेद थती जाय छे. राग कांई
आत्मामां अभेद नथी थतो. आम निर्मळ ज्ञानपरिणति साथे अभेद आत्मा ते ज
परमार्थ छे. आवा परमार्थ स्वसंवेदनवडे आत्मा मोक्षने पामे छे. आ रीते आत्माथी
अभिन्न एवुं