Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ४१ :
स्वसंवेदनज्ञान ते ज आत्माने जाणवानुं साधन छे; एवा साधनवडे तुं आत्माने जाण.
एक क्षणमां मोह तूटे ने आत्मस्वरूप प्रकाशित थाय–एवा प्रयोजनभूत ज्ञाननो
उपदेश शिष्ये जिज्ञासाथी मांग्यो हतो; तेने प्रयोजनभूत एवा शुद्ध आत्मतत्त्वनो
उपदेश आपतां कहे छे के हे वत्स! ज्ञान साथे तारा आत्माने तुं एकमेक जाण ने अन्य
समस्त भावोथी भिन्न जाण. आ रीते राग वगरना स्वसंवेदनथी तारो आत्मा तने
तरत ज जणाशे.
तारुं स्वरूप तो ज्ञान छे; ज्ञानस्वरूप आत्माथी बहारना जे कोई शुभ के अशुभ
भावो ते तारुं स्वरूप नथी; माटे ते सर्व परभावोने परिहरीने, ने ज्ञानस्वरूपमां
तन्मय थईने तारा आत्माने जाण. परभावो अनेक प्रकारना छे, ते बधाथी जुदो
ज्ञानस्वभाव एक छे. एवा एक स्वभावना अनुभवथी तारुं स्वरूप प्रकाशित थशे.
आवा आत्माना अनुभवमां कोई विकल्पनो सहारो नथी.
शिष्यने पण प्रश्न पूछवामां एम लक्ष हतुं हे मारे परम ज्ञान सिवाय अन्य कोई
भावोथी कांई प्रयोजन नथी, एटले विकल्पवडे–रागवडे स्वरूप पमाशे–एवुं तो एना
लक्षमांथी छूटी गयुं छे, ने परम ज्ञाननुं ज लक्ष छे; एटले तेना उपदेशनी मांगणी करी
हती के हे प्रभो! जे जाणवाथी शीघ्र मारो आत्मा मने अनुभवमां आवी जाय–एवा
परमज्ञाननो उपदेश मने कृपा करीने आपो.
तेने अहीं सीधो उपाय समजावे छे के, ज्ञान साथे आत्मा एकमेक छे, माटे
ज्ञानमां रहीने आत्माने जाण. विकल्पमां रहीने आत्मा नहि जणाय. निर्मळ
परिणतिरूप जे शुद्धज्ञान तेमां आत्मा जणाशे; एटले के ज्ञानपर्याय अंतर्मुख थईने
विकल्पथी खसीने आत्मामां एकरूप थई त्यारे ते पर्यायमां परमात्म तत्त्व प्रगट थयुं.
ने त्यारे आत्माने जाण्यो.
फरी फरीने कहे छे के हे प्रभाकर भट्ट! हे जिज्ञासु शिष्य! आत्मा नियमथी
ज्ञानगोचर छे, केमके ज्ञान ज आत्माने जाणे छे. माटे तुं विषयकषायना अशुभ भावोने
छोडीने तेमज पुण्यना शुभ भावोने पण छोडीने ज्ञानवडे निज आत्माने जाण.
‘ज्ञान’ ज खरेखर तेने कह्युं के जे विकल्पथी छूटुं रहीने आत्मस्वरूपमां ढळ्‌युं छे.
विकल्प ते कांई ज्ञान नथी, ते कांई आत्माने जाणवानुं काम करी शकतो नथी. विकल्पनी
जात तो आत्माथी जुदी छे, ते आत्माने केम जाणी शके? आत्मानी जात तो ज्ञान छे, ते
ज्ञान ज आत्माने जाणे छे.