Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 45 of 73

background image
: ४२ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
आत्मानुं स्वरूप तो ज्ञान छे. ज्ञानस्वरूपनी प्राप्ति ज्ञान वडे थाय; अज्ञानवडे न
थाय. विकल्प ते पण अज्ञाननी जातमां छे, ज्ञाननी जातमां नथी. पण आनो अर्थ एम
न समजवो के जे जीवने विकल्प होय ते अज्ञानी छे. ज्ञानीनेय विकल्प होय पण ज्ञानी
ते विकल्पने ज्ञान साथे भेळवता नथी, विकल्पने ज्ञानथी जुदो ज राखे छे; विकल्पनी
जात अने ज्ञाननी जात ए बंनेने एकदम जुदी जुदी जाणे छे. जो विकल्पने ज्ञान साथे
भेळवीने एकमेक करे तो ते जीव अज्ञानी छे; ते विकल्पने साधन माने छे पण
विकल्पथी भिन्न ज्ञानने जाणतो नथी.
अहो, आ ज्ञानस्वरूप जिनपद छे ते ज्ञानगुणवडे एटले के सम्यग्ज्ञानवडे ज
प्राप्त थाय छे. परंतु सम्यग्ज्ञान वगरना लोको बीजा कोई उपायथी आ निजपदने पामी
शकता नथी. माटे हे जीव! तने तारा स्वरूपनी प्राप्तिनी अभिलाषा छे तो ज्ञानगुणवडे
तुं तेने प्राप्त कर, ज्ञानपरिणतिने अंतरमां ऊंडी उतारीने आत्माने अनुभवमां ले.
विकल्प तो उपर उपर रहेनारा छे, ते कांई स्वभावमां ऊंडे ऊतरता नथी, ज्ञानपर्याय
वडे स्वभावमां ऊंडो ऊतरीने तेनो ताग ले, तो ते क्षणे ज तने तारुं स्वरूप प्राप्त थशे...
अने तारा परम अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद पण तने तरत ज अनुभवमां आवशे.
ज्ञानीनुं चिंतन
ज्ञानी पोताना आत्माने केवो चिंतवे छे? ते समजावीने तेनी
भावना करवानुं कहे छे–
केवलज्ञानस्वभावी, केवळदर्शनस्वभावी, सुखमय अने
केवळशक्तिस्वभावी ते हुं छुं– एम ज्ञानी चिंतवे छे.
जे निजभावने छोडतो नथी, कंई पण परभावने ग्रहतो
नथी, सर्वने जाणे–देखे छे ते हुं छुं–एम ज्ञानी चिंतवे छे.
ज्ञानी थवा माटे हे जीव! तुं पण तारा आत्माने चिंतव–एम
श्री मुनिराजनो उपदेश छे.
(नियमसार गा. ९६–९७)