केवळज्ञानरूपी आकाशमां समस्त लोकालोक एक नक्षत्रसमान भासे छे एवा
ज्ञानसामर्थ्यवाळुं आ परमात्मतत्त्व ज धर्मात्माओने उपादेय छे, –कई रीते? के समस्त
विकल्परहित समाधिकाळे ते परमात्मतत्त्व उपादेय छे. मोक्षपुरीमां जेटला जीवो गया,
जाय छे के जशे ते बधा जीवो अंतरमां आवा परमात्मतत्त्वने उपादेय करी करीने ज
मोक्षमां जाय छे. मोक्षगामी जीवोनो संघ परमात्मतत्त्वनी आराधना करतो करतो
मोक्षमां चाल्यो जाय छे.
मार्ग छे. मोक्षार्थीए पोताना परमात्मतत्त्व सिवाय बीजुं कांई आराधवायोग्य नथी.
ज्ञानीओ तो तेने आराधी रह्या ज छे, ने ज्ञानीनी जेम बीजा जिज्ञासु आत्मार्थी
जीवोए पण ते ज आराधवायोग्य छे.
श्रवणथी नहि, विकल्पथी नहि, पण उपयोगने अंतरमां जोडीने चैतन्यस्वभावने
उपादेय जाण. सन्तो अंतरना ध्यानमां जे ज्ञानस्वरूप आत्माने ध्यावे छे तेने ज तुं
निरंतर आदरवालायक जाण, केमके ते ज एक निरंतर मोक्षनुं कारण छे; वच्चे बीजा
कोईने एक क्षण पण मोक्षना कारण तरीके न सेव.