Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ४७ :
निष्कर्मरूप ज्ञानचेतनानुं परम सुख
(समयसार कळश २३२–२३३ ना प्रवचनमांथी.)
साधकनी ज्ञानचेतना छे ते आनंदना अनुभव सहित छे,
आनंदथी नाचती नाचती ते मोक्षसुखने साधे छे.
सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपना अनुभवथी थयेला अतीन्द्रिय सुखथी अत्यंत
तृप्त छे; सम्यग्दर्शन उत्पन्न थया पहेलांं मिथ्यात्वभावथी जे कर्मो बंधायेला, तेना फळने
ते सम्यग्द्रष्टि भोगवतो नथी; केमके कर्मना फळमां जोडाण ते तो चैतन्यप्राणने घातनार
विषवृक्ष छे. चैतन्यनी अमृतवेलडीनो स्वाद जेणे चाख्यो ते विषवृक्षनां फळने केम
भोगवे? अहा, चैतन्यस्वरूपनी सावधानी थई ते ज्ञानचेतनामां कर्मफळचेतनानो
अभाव छे. देडकुं हो, देव हो के आठ वर्षनुं बाळक हो, –तेमां जे सम्यग्द्रष्टि छे ते एम
जाणे छे के आ जडकर्मनो उदय के तेनुं फळ ते हुं नथी, ते परद्रव्य छे, ने हुं तो अतीन्द्रिय
चैतन्य छुं. –आम जाणतो ते धर्मात्मा उदयना रंगे रंगातो नथी, एने तो चैतन्यनो ज
रंग छे. चैतन्यना आनंदनो जे स्वाद आवे ते ज हुं छुं–एम ते चैतन्यना स्वादने लीधा
करे छे. –ए चैतन्यस्वादथी ते स्वत: तृप्त छे.
ज्ञानचेतनावडे चैतन्यना आनंदने अनुभवतो–अनुभवतो, अने उदयभावने
छोडतो– छोडतो सम्यग्द्रष्टि जीव एवी उत्तम दशाने पामे छे के जे वर्तमानमां
अनंतसुखरूप छे, ने भविष्यमां पण अनंतकाळ सुधी सुखरूप छे; आ रीते द्रव्यना
सहज स्वभावरूप एवा अतीन्द्रिय सुखमय ज्ञानचेतना वडे पमाय छे. अहा, दशा
ज्ञानचेतनाए पोताना अनंत गुणनिधानने देख्युं छे, ते ज्ञानचेतना बहारथी कांई प्राप्त
थवानुं मानती नथी. अंतरमां चैतन्यसुखना अनुभवमां रमती रमती ते केवळज्ञानने
अने सिद्धपदने साधे छे. वच्चे व्यवहार अने शुभराग आवे छे ने? तो कहे छे के हा,
परंतु ज्ञानचेतना तेने छोडती जाय छे, ज्ञानचेतना तेने उपादेय नथी मानती;
ज्ञानचेतना तो शुद्ध स्वभावने ज उपादेय करीने तेने अनुभवती– अनुभवती मोक्षने
साधे छे.